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( २४५ )
मुनि ! तू संसार से तिरा हुआ है ।
कर्म से उपाधि होती है ।
सभी प्राणियों के प्रति मेरो मित्रता है किसी के साथ वैर नहीं है । अमुनि सदा सोते रहते हैं और मुनि हमेशा जागते रहते हैं । चंडकौशिक सर्प ने श्रमण महावीर को डसा ।
जो क्रोधदर्शी है वह गर्भदर्शी है और जो गर्भदर्शी है वह दुःखदर्शी है । हे पण्डितो ! मैं सब प्रकार से लोभ का त्याग करता हूँ । महावीर ने चण्डकौशिक सर्प और देवेन्द्र दोनों में मित्रता रखी । वायु से वृक्ष काँपे और जल की बूँदें उड़ीं ।
क्या विचारक को उपाधि होती है ?
कौशिक देवेन्द्र ने श्रमण महावीर को पूजा । हाथी ने समुद्र का पानी पिया |
लोभ संसार का हेतु है ।
कोई भी व्यक्ति कुलपति के बैल तथा मृग को नहीं मारता । बैल और मृग घास खाते हैं और मुनि घो पीते हैं ।
महावीर के उपासक सेठ ने वैशाख मास में तप किया ।
सभी आभूषण भाररूप हैं ।
कुलपति ने श्रमण महावीर को कहा - ' कुमारवर ! यहाँ ऋषियों का मठ है ।'
सौमित्रि राम को प्रणाम करता है ।
मुनि आहार के लिए सभी कुलों में जाते है ।
महावीर ग्रीष्म के दूसरे महीने चौथे पक्ष में बुद्ध बने ।
सुप्रसन्न मुनि क्रोधदर्शी नहीं होते ।
यह भिक्षु सेठ के कुल का था ।
हे भिक्षु ! मेरे घर में दूध नहीं, घो नहीं लेकिन पानी है । इस गृहस्थ के दो बालक थे ।
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