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वहूण, वहूणं ( वधूनान् )
वहूअ, बहूआ
वसु, बहुसुं ( वधूषु )
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हू, बहू ( वध्वाम् ) 'वहु ! ( वधु ! )
सं०
बहूओ, वहुउ, बहू ! ( वध्वः
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शब्द का अंग और प्रत्यय का अंश दोनों पृथक्-पृथक् करके बता दिये हैं तथा उससे साधित प्रत्येक रूप भी अलग-अलग बताये गये हैं ।
आकारान्त, इकारान्त, ईकारान्त, उकारान्त तथा उकारान्त स्त्रीलिंगवाचक शब्दों के सभी रूप एक जैसे हैं । उनमें भेद नहींवत् है । अतः मूल अंग और प्रत्ययों के विभाग को पद्धति एक हो स्थान पर समझा दी है ।
ष०
1
स०
( ३१२ )
बहूअ,
वहूआ
वहूइ, बहूए ( वध्वा: )
दीर्घ ईकारान्त शब्दों की प्रथमा और द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में केवल एक “आ” प्रत्यय ही विशेष - नया प्रयुक्त होता है । आकारान्त को छोड़ उक्त सभी शब्दों को तृतीया से सप्तमी पर्यन्त एकवचन में 'आ' प्रत्यय अधिक लगता है । उक्त रूप हो इस परिवर्तन का साक्षी है ।
यद्यपि इन चारों प्रकार के शब्दों के सभी रूप एक समान हैं तथापि संस्कृत रूपों के साथ तुलना करने के लिए तथा विशेष स्पष्ट करने के लिए उनके सभी रूप ( कोष्ठक चिह्न में ) बता दिये हैं । इन रूपों से प्रचलित भाषा के रूपों की भी समानता का भान हो जाता है ।
१. 'तो' और 'म्' प्रत्ययों के सिवाय अन्य सभी प्रत्ययों के परे रहते शब्द के अंग का स्वर दीर्घ हो जाता है । जैसे'बुद्धिओ', 'घेणओ' ।
२. 'म्' प्रत्यय परे रहते अंग का पूर्व स्वर हस्व हो जाता है । जैसे- 'नदि', 'बहु' ।
३. जहाँ केवल मूल अंग का हीं प्रयोग करना हो वहाँ उसे दीर्घ करके प्रयुक्त करना चाहिए। जैसे- 'बुद्धी', 'घेणू' ।
१. हे० प्रा० व्या० ८।३।४२ ।
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