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( ३३१ ) किसी भी धातु का भावप्रधान अथवा कर्म-प्रधान अंग बनाना हो तो उसके साथ 'ई', 'ईय' और 'इज्ज' इन तीन प्रत्ययों में से कोई एक प्रत्यय लगाना चाहिए।
ये तीनों प्रत्यय केवल वर्तमानकाल, विध्यर्थ, आज्ञार्थ और ह्यस्तनभूतकाल में ही प्रयुक्त हो सकते हैं । अतः भविष्यत्काल तथा क्रियातिपत्ति आदि अर्थ में भावे और कर्मणि प्रयोग, कर्तरि-प्रयोग की भांति ही समझने चाहिए।
भाव-याने क्रिया, जो प्रयोग मुख्यत: क्रिया को ही बताता है वह भावेप्रयोग होता है।
भावप्रयोग अकर्मक धातुओं से बनता है। हिन्दी व्याकरण में 'रोना, पैदा होना, सोना, ऊंघना, लज्जित होना' आदि धातुएँ ही अकर्मक रूप से प्रसिद्ध हैं । जबकि यहाँ जिस धातु के प्रयोग में कर्म न हो अथवा अध्याहार में कर्म हो, वह सकर्मक धातु भो अकर्मक माना जाता है। इसीलिए खाना, पीना देखना, गढ़ना, करना आदि सकर्मक धातुएँ भी कर्म की अविवक्षा की अपेक्षा से अकर्मक रूप से प्रयुक्त होते हैं। इन दोनों प्रकार के अकर्मक धातुओं का भावेप्रयोग होता है।
जिसे कर्ता क्रिया द्वारा विशेष रूप से चाहता है वह कर्म-छोटी-बड़ी सभी क्रियाओं का फल । जो प्रयोग कर्म को ही सूचित करता है वह कर्मणिप्रयोग कहलाता है। भावे और कर्मणि प्रयोग के अंग
भावसूचक अंग बीह-बीहीअ, बीहिज्ज
खा-खाईअ, खाइज्ज उंघ-उंघीअ, उंधिज्ज
তল-তলীল, কলিতল कह-कहीअ, कहिज्ज
बुड्ड-बुड्डीअ, बुड्डिज्ज बोल्ल-बोल्लीम, बोल्लिज्ज हो-होईअ, होइज्ज।
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