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भाणु + णो = भाणुणो
भाणु + भा
अकारान्त शब्द के रूप सिद्ध करने में जो प्रत्यय प्रयुक्त होते हैं;. अधिकतर उन्हीं प्रत्ययों का प्रयोग उपर्युक्त रूपसाधना में किया गया है । सर्वथा नये रूप बहुत थोड़े हैं ।
१. प्रथमा और सम्बोधन के एकवचन तथा बहुवचन में और द्वितीया के बहुवचन में इकारान्त और उकारान्त के मूल अंग केवल दीर्घ होकर प्रयुक्त होते हैं ।
यथा :-रिसि
रिसी; भाणु = भाणू ।
२. स्वरादि प्रत्यय परे रहने पर प्रथमा, सम्बोधन और चतुर्थी के अंग के अन्त्य स्वर का याने अंग का अन्त्य 'इ' अथवा 'उ' का लोप हो जाता है ।
जैसे :- रिसि + अओ = रिस् + अओ = रिसओ
भाणु + अवो = भाण् + अवो = भाणवो रिसि + अये = रिस् + अये = रिसये भाणु + अवे = भाण् + अवे = भाणवे ।
३. नये रूपों में तृतीया एकवचन, 'णो' प्रत्ययवाले सभी रूप और चतुर्थी का एकवचन है। लेकिन वे सभी उपर्युक्त प्रयोग रूपसाधना से समझे जा सकते हैं ।
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संस्कृत में 'इन्' प्रत्ययान्त ( दण्डिन्, मालिन् ) शब्दों के प्रथमा - द्वितीयाबहुवचन में तथा पञ्चमी षष्ठी के एकवचन में 'दण्डिनः मालिनः ;' इयदि रूप प्रसिद्ध हैं; इन्हीं रूपों का प्राकृत रूपान्तर 'दंडिगो; मालिणो' होता है । ये सब देखते हुए 'रिसिणो', 'भाणुणों' रूपों की घटना सहज में ही समझी
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