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अन्तिम स्वर को दीर्घ होता है और पञ्चमी के बहुवचन के 'हि', 'हितो', 'सुंतो' प्रत्ययों के पूर्व अकारान्त अंग के अन्त्य 'अ' को 'ए' भ हो जाता है ।
एकवचन
वीर + ओ = वीराओ
वीर + उ = वोराउ
रिसि + ओ भाणु + ओ
=
रिसीओ
भाणूओ
६. षष्ठी के बहुबचन 'ण' से पूर्व अंग के अन्तिम स्वर को दीर्घ होता है ।
वीराण, वीराणं ।
वीर + ण = रिसि + ण =
७. सम्बोधन - ( विभक्ति ) के रूप रहित केवल मूल अंग भी प्रयोग में वीरो ! वीरा ! वीरे ।
: रिसीण ।
बहुवचन
वीर + हि = वीराहि, वीरेहि ।
वोर + हितो = वीराहितो, वीरेहितो । वीर + सुंतो = वीरासुंतो, वीरेसुंतो ।
रिसि + हि = रिसीहि ।
भाणु + ह = भाणूहि ।
रिसि + हितो = रिसीहितो ।
सर्वथा प्रथमा जैसे हैं; विभक्ति देखने को मिलता है । जैसे, वीर !
८. तृतीया विभक्ति के 'हि' प्रत्यय परे नासिक भी होता है । इस प्रकार वीरेहि, वीरेहिं ।
१
९. व रा ( च० ए० ), वीरंसि ( स० ए० ) रूपों का व्यवहार
विशेषतः आर्ष प्राकृत में दिखाई देता है । एकवचन में 'आई' प्रत्यय वाला रूप भी
कई स्थानों में चतुर्थी के उपलब्ध होता है ( हे०
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रहने पर अनुस्वार और अनुइसके तीन रूप होते हैं । वीरेहि,
१९. अजिणाए ( अजिनाय ), मंसाए ( मांसाय ), पुच्छाए ( पुच्छाय ) आदि 'आए' प्रत्यय वाले तथा 'लोगंसि', 'कंसि', अगारंसि, सुसाणंसि आदि 'अंसि' प्रत्यय वाले रूप आचारांगादि आर्ष सूत्रों में मिलते हैं ।
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