________________
( ११३ ) है० प्रा० व्या० ८।११२ तथा ३ । कच्चायण पालिव्या० नामकप्प.
कांड १, सू० १, संधिकप्प कांड ४, सू० ९।। ७. वैदिक शब्दों में अन्तिम व्यञ्जन का लोप होता है। इसी
प्रकार प्राकृत भाषा में अन्त्यव्यंजन का लोप व्यापक है। वैदिक रूप :
पश्चात्--पश्चा, पश्चार्ध-वै० प्र० ५।३।३३ । उच्चात-उच्चा-तैत्ति० सं० २।३।१४ । नीचात्-नीचा-तैत्ति० सं० ११२।१४ । विद्युत्-विद्यु-अन्त्यलोपः छान्दसः, ऋग्वेद पृ० ४६६ म० सं० म० । युष्मान्-युष्मा-वाज० सं० १११३।१ । शत० ब्रा० ११२।६।
स्य:-स्य-वै० प्र०६।१।१३३ । प्राकृत रूप :
तावत्-ताव। यावत्-जाव। तमस्-तम । चेतस्-चेत, इत्यादि।
___-देखिए पृ० १२ व्यंजन का परिवर्तन-लोप । ८. वैदिक भाषा में 'स्प' को 'प' हो जाता है। प्राकृतिक भाषा में भी स्प को प हो जाता है।
वै० स्पृशन्य-पृशन्य । स्पृहा-पिहा, निस्पृह-निप्पह । --ऋग्वेद पृ० ४६६ म० सं० । -देखिए, पृ० ५७ । पूर्ववर्ती 'स'
का लोप ।
प्रा०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org