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प्राकृतभाषा के शब्द तथा उनके परिवर्तन कितनी अधिक समानता रखते हैं। इससे यह भी फलित होता है कि वैदिक संस्कृत, पुरोहितों की संस्कृत तथा प्राकृतभाषा-ये तीनों भाषाएँ अंग्रेजी, गुजराती, उड़िया भाषा की तरह सर्वथा स्वतंत्र रूप से नहीं हैं परन्तु भाषा तो एक ही है मात्र उच्चारण का तथा उनकी शैली का ही इसमें भेद है। जैसे; दिल्ली की हिन्दी, अजमेर---मेवाड़ की हिन्दी और साक्षरी हिन्दी-इन तीनों हिन्दी भाषाओं में कोई भेद नहीं है परंतु उनमें बोलने की शैली तथा उच्चारणों का ही भेद है। वाक्यपदीयकार श्रीभर्तृहरि ने कहा है कि
यद् एकं प्रक्रियाभेदैर्बहधा प्रविभज्यते । तद् व्याकरणमागम्य परं ब्रह्माधिगम्यते ॥ २२ ॥
-वाक्यपदीय प्रथम खंड. एक दूसरी स्पष्टताआजकल एक ऐसी कल्पना प्रचलित है कि प्राकृतभाषा नीचों की भाषा है, स्त्रियों की और शूद्रों की भाषा है परन्तु पंडितों की भाषा नहीं।
सचमुच यह कल्पना सच होती तो प्रवरसेन, वाक्पति, शालिवाहन, राजशेखर जैसे धुरंधर वैदिक पांडतों ने इस भाषा में सुंदर से सुंदर काव्य ग्रन्थ न लिखे होते तथा वररुचि, भामह, वाल्मीकि, लक्ष्मीधर, क्रमदीश्वर, मार्कंडेय कात्यायन, सिंहराज इत्यादि वैदिक पंडितों ने इस भाषा के विविध व्याकरण ग्रंथ भी न लिखे होते । सच तो बात यह है कि प्राकृत भाषा आमजनता की भाषा रही इसी कारण इस भाषा का उपयोग सब लोग करते रहे और पंडित लोग भी अपने बच्चों के साथ तथा वृद्ध माता-पिता और अपठित पत्नियों के साथ इसी भाषा से व्यवहार करते रहे, केवल यज्ञादिक विधियों में तथा शास्त्रार्थ-सभा में पुरोहित पंडित प्रचलित भाषा को ही अपने ढंग के उच्चारणों द्वारा बोलते थे और उन्होंने
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