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प्रथम-परिच्छेद ]
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__ मथुर के देवनिगित स्तूप के शिलालेखों में "वाचक" शब्द और "गणि" शब्द अधिक प्रयुक्त हुए हैं, और उनके उपदेश से जो कार्य हुए हैं। उनके अन्त में "निर्वर्तन" अथवा निर्वर्तना" शब्दों का प्रयोग किया गया है। कहीं कहीं “दान" तथा "धर्म" शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं। लेखों की भाष, तथा शैली का कुछ प्राभ.स देने वाले कतिपय वाक्य-खण्ड उद्धृत करके प्रस्तुत प्रकरण को पूरा कर देंगे।
"अय्य जेष्ठ हस्तिस्य वाचक X, ज्येष्ठ हस्ती शिष्य x, गणिस्य, अ> वुट्टसिरिस्य ॥ वाचकस्य अयं संघसिंघस्व X, वाचकस्य अर्य्य मातदिनस्य X, वाचकस्य हरिनन्दिसीसो नागसेनस्य निवर्तनम् ॥ वाचकस्य मोहनंदिस्य सीसस्य सेनस्य निर्वर्तना॥" इत्यादि लेखों में “वा वक" और "गणि' शब्द सब से अधिक प्रयुक्त हुए हैं । वाचक श्री देवद्धिगणि ने अपनी नन्दी स्थविरावली में वाचक वंश का जो वर्णन किया है, उसका मथुरा के इन शिलालेखों से समर्थन होता है।
मथुरा के देवनिर्मित स्तूप के शिलालेख राजा कनिष्क, हुविष्क और वासुदेव के समय के लिखे हुए हैं और उन सभी में कुषाण राजामों के संवत्सर का प्रयोग किया गया है। कुषाण राजा कनिष्क का राज्य संवत्सर ई० सं० ५८ से प्रारम्भ होता है, जो टाईम विक्रम के संवत्सर का प्रारम्भ है। मथुरा के प्राचीन सभी कुषाणकालीन लेख विक्रम को प्रथम शताब्दो के हैं और बे "मूर्तियों, पायागपट्टों" तथा अन्यान्य धार्मिक कार्यों के साथ सम्बन्ध रखने वाले हैं। कई विद्वान् भारत में मूर्तिपूजा के प्रचारक जैनों को मानते हैं, वह मान्यता मथुरा स्तूप के लेखों से किसी अंश में सत्य प्रतीत होती है। जैन होते हुए भो कतिपय जैन-सम्प्रदाय प्रतिमापूजा से विमुख बने बैठे हैं उनको प्रस्तुत मथुर। के स्तूप की हकीकत से बोधपाठ लेना चाहिए और जो नग्नता में ही परमधर्म मानने वाले दिगम्बर विद्वान् आर्य स्थूलभद्र से श्वेताम्बर सम्प्रदाय का उद्भव मानते हैं, वे कल्प-स्थविरावली के गणों, कुलों पौर शाखाओं का मथुरा के लेखों से मिलान करके देखें कि ये सब गण, कुलादि श्वेताम्बर निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय के
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