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गरा-शाखा- कुलों में परिमार्जन
मथुरा के शिलालेखों में 'चारणगण' का आदि अक्षर "चा' सर्वत्र "वा" पढ़ा गया है; जो यथार्थ नहीं है। क्योंकि "वारण" शब्द की गरण के साथ कोई अर्थ-संगति नहीं बैठती, जब कि "चारण" शब्द गण के साथ बिल्कुल संगत हो जाता है : जैन सूत्रों में "विद्याचारण, जंघाचारण, जलचारण" प्रादि अनेक प्रकार के प्रात्म-शक्ति-सम्पन्न श्रमणों के नाम मिलते हैं। उन्हीं में से किसी प्रकार की चारणलब्धि से सम्पन्न गरणप्रवर्तक श्रीगुप्त स्थविर होंगे, जिससे उनके "गण' का नाम "चारण गण" पड़ गया है।
शाखाओं में उच्चानागरी शाखा का उल्लेख अधिकांश स्थानों में "उच्चे नागरी" के रूप में किया गया है। सम्भव है उच्चानागरी शाखा के वाचकों को "उच्चै गर वा वक' नाम से सम्बोधित किया जाता था, उसी के अनुकरणों में लेखकों ने "उच्चा" के स्थान पर "उच्चे' कर दिया हैं। हमने स्थविरावलीगत "उच्चानागरी" नाम ही कायम रखा है ।
कोटिक गण को "वइरी" शाखा "वइरी" अथवा "वइरा" इस प्रकार से शिलालेखों में उत्कीर्ण मिलती है। परन्तु दो लेखों में “कोटिक गण" के साथ इसका प्रार्य वज्री के रूप में उल्लेख हुआ है। कतिपय स्थविरावलीगत कुल-नामों के साथ शिलोत्कीर्ण नाम अधिक जुदा पड़ जाते हैं । "कोटिक गण" के "बंभलिज्जिय" नाम के स्थान में लेखों में कोई सात जगह "ब्रह्मदासिका" नाम मिलता है, इधर पट्टावलीगत "बंभलिज्जिय" शब्द से भी कोई विशिष्ट अर्थ नहीं निकलता। संभव है "कोटिक गण" के जन्मदाता "सुस्थित-सुप्रतिबुद्ध के गुरुभ्राता "ब्रह्मगणी" का पूरा नाम "ब्रह्मदास गणि" हो और उन्हीं के नाम से "ब्रह्मदासिक कुल' प्रसिद्ध
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