Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम्
विशेषार्थ :- जो पुरुष असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्पादि कर्मों का सम्पादन कर आजीविका नहीं चला सकते वे प्रमादी दरिद्र-निर्धन बने रहते हैं । उनकी संसार में कोई सहायता नहीं करता । कहा भी है "God help those who help themself." भाग्य या भगवान उन्हीं की सहायता करते हैं जो स्वयं सामर्थ्य रखते हैं । हमारा आगम व सिद्धान्त भी यही कहता है, जो स्वयं पुरुषार्थी हैं. पण्यवान हैं उनका संसार बन्ध्र है । "स्वतः नास्ति शक्तिः कर्तमन्येन न पार्यते" जिसमें स्वयं कार्य करने की क्षमता नहीं है उसे अन्य कोई क्या कर सकता है । लोक में -
सुख के सब लोग संगाती है, दुःख में कोई काम न आता है ।
जो सुख में प्यार दिखाता है, दुःख में वह आंख दिखाता है । इतना ही नहीं, जैमिनि ने लिखा है -
उपकर्तुमपिप्राप्त निः स्वं दृष्ट्रा स्वमन्दिरे ।
गुप्तं करोति चात्मानं गृही याचनशङ्कया ॥ अथांत धनहीन व्यक्ति किसी के उपकार करने की भावना से भी द्वार पर आता है तो गृहस्वामी उसे देखते ही छिप जाता है इस आशंका से कि "कहीं यह कुछ मुझसे मांगेगा ।" नीतिकार कहते हैं संसार में सबसे बड़ा कष्ट गरीबी
सब बने बने के ठाट-बाट, बिगड़ी में काम न आते हैं। धन हो तो सब पीछे-पीछे घूमते हैं, निर्धन होने पर वे ही बात करना भी नहीं चाहते । स्वयं दरिद्री कहता
दारिद्रयं नमस्तुभ्यं, सिद्धोऽहं त्वत्प्रसादात् ।
अहं पश्यामि सर्वान् मां पश्यति न कश्चन ।। भो दारिद्र ! तुम्हें नमस्कार है । क्यों तुम्हारे प्रसाद से मैं सिद्ध पुरुष हो गया हूँ । किस प्रकार ? अरे भाई मैं याचनार्थ सर्वजनों को देखता हूँ पर मुझे कोई नहीं देखता-मुँह फेरकर चले जाते हैं ।
"दीयतां दीयतां दानमदत्तस्य ईदृशी गतिः" भिक्षुक भिक्षा याचने के साथ साथ सम्बोधन देता है, दान करो, दान करो अन्यथा आपकी भी मेरे जैसी गति होगी । इसीलिए आचार्य कुन्दकुन्द देव अपने कुरलं काव्य में कहते
स्वर्ग मिले यदि दान में लेना दान न धर्म । स्वर्ग द्वार भी बन्द हो, फिर भी देना धर्म ।।12।
प.23.दान. दान लेना बुरा है चाहे उससे स्वर्ग ही क्यों न मिलता हो और दान देने वाले के लिए चाहे स्वर्ग का द्वार बन्द || ही क्यों न हो जाय तो भी दान देना अच्छा है । दानी को दारिद्रय नहीं सताता अतएव दान करना चाहिए ।20॥