Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम्
हस्तिना सह संग्रामः पदातीनां क्षयावहः । तथा बलवता नूनं दुर्बलस्य क्षयावहः ॥1॥
अर्थ वही है। जो भूपति अपनी प्रजा के जीवन, धन, सम्मान का रक्षण करता हुआ न्यायोचितनियत टैक्स से सन्तुष्ट रहता है, अन्याय नहीं करता, अनावश्यक प्राणदण्डादि कठोर दण्ड नहीं देता, धर्म संरक्षण का प्रयत्न करता है । वह राजा "धर्मविजयी" कहलाता है 1170॥ इसके विपरीत जो भूपाल धन से ही प्रेम करता है, अर्थ संचयार्थ न्याय-अन्याय का विचार नहीं करता, प्रजा की सुख सुविधा की चिन्ता न कर उसका शोषण कर मात्र खजाने की वृद्धि में लगा रहता है । धर्म और धर्मात्माओं का रक्षण नहीं करता । किसी के प्राण, मर्यादा व धर्म का रक्षण नहीं करता वह "लोभविजयी" कहलाता है ।171॥ तथा जो प्रजा के प्राण, धन और सम्मान का नाश कर शत्रु का वध करके उसकी भूमि हड़पना चाहता है वह "असुरविजयी" कहलाता है 172। शुक्र ने भी यही स्वरूप कहा है :
प्राणवित्ताभिमानषु यो राजा न द्रूहेत प्रजाः । सधर्म विजयी लोके यथा लोभेन कोशभाक् ।।1।। पाणेषु चाभिमानेषु यो जनेषु प्रवर्तते । स लोभ विजयी प्रोक्तो यः स्वार्थेनैवतुष्यति ।।2।। अर्थमानोपघातन योमहीं वाञ्छते नृपः ।
देवारि विजयी प्रोक्तो भूलोकेऽत्र विचक्षणैः ॥3॥ स्वच्छन्द बिहारी भोल मृग यदि दुष्ट चाण्डाल के घर में प्रविष्ट हो जाय तो उसका वध होता है, उसी प्रकार असुरविजयो राजा के आश्रय से प्रजा का नाश ही होना निश्चित है । शुक्र ने भी कहा है :
"असुर विजयिनं भूपं संश्रयेन मतिवर्जितः ।
स नूनं मृत्युमाजोति सूनं प्राप्य मृगी यथा ।।10 173॥ श्रेष्ठ से सन्निधान से लाभ, निहत्थे पर प्रहार अनुचित, युद्ध से भागने वाले बन्दियों से भेट :
यादृशस्तादशो वा यायिनः स्थायी बलवान् यदि साधुचरः संचारः 174॥ चरणेषु पतितं भीतमशस्त्रं च हिंसन् ब्रह्महा भवति ।75॥ संग्रामधृतेषु यायिषु सत्कृत्य विसर्गः ॥16॥ स्थायिषु संसर्गः सेनापत्यायत्तः ॥7॥
विशेषार्थ :- विजयेच्छु आक्रमण करने वाला यदि दुर्बल एवं कोषहीन है, परन्तु यदि वह उत्तम कर्तव्यपरायण व वीर सुभटों के सन्निधान से सहित है तो उसे महान बलिष्ठ समझना चाहिए 174॥ नारद ने भी इसका समर्थन किया है :
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