Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 617
________________ नीति वाक्यामृतम् अर्थ :- युद्ध में मृत्यु को प्राप्त हुए सैनिकों की सन्तति का पालन पोषण नहीं करने वाला राजा निःसन्देह उनकी हत्या का पापी है ।। ॥ जो सैनिक वीरभट अपने स्वामी के आगे जाकर शत्रु का सामना करता है अर्थात् युद्ध करता है वह अश्वमेघ यज्ञ समान फल दृष्टि से अश्वमेषयज्ञ में संकल्पी हिंसा होने से महापाप है । उसका कर्त्ता महापापी दुर्गति का पात्र होता है ॥ महादुःख भोगता है । इसका स्पष्टीकरण यशस्तिलक चम्पू में आचार्य श्री ने किया है 1194 ॥ समराङ्गण में अपने स्वामी को छोड़कर भागने वाले सैनिक का ऐहलौकिक व पारलौकिक अकल्याण होता है । अर्थात् " रणेऽपलायणं" युद्ध से नहीं भागना इस क्षात्र धर्म का त्याग करने से उसकी इस लोक में अपकीर्ति व परलोक में दुर्गति होती है 1195 ॥ भागुरि ने भी यही बताया है : यः स्वामिनं परित्यज्य युद्धे याति पराङ्मुखः । इहाकीर्ति परां प्राप्यं मृतोऽपि नरकं व्रजेत् ॥1॥ शत्रु पर आक्रमण (चढ़ाई) करने के पूर्व सेनापति अपनी आधी सेना को सज्जा (लैसड् ) कर तैयार रखे। सुसज्जित सेना होने पर ही चढाई करे । जिस समय शत्रु दल के सन्निकट पहुँचे तो चारों ओर से सेना द्वारा घिरा रहे । तथा उसके पीछे अपने डेरे में भी सेना सुसज्जित तैयार रहनी चाहिए । इसका कारण यह है कि विजयाभिलाषी कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो आक्रमण करने के समय व्याकुल हो सकता है और शूर-वीरों द्वारा आक्रान्त किया जा सकता है 1196 ॥ शुक्र ने भी लिखा है : परभूमि प्रतिष्ठानां नृपतीनां शुभं भवेत् । आवासे च प्रयाणे च यतः शत्रुः परीक्ष्यते ॥1 ॥ जिस समय आक्रान्त - चढाई करने वाला दूर हो और शत्रु की सेना उसकी ओर बढ़ती आ रही हो, उसके गुप्तचर जो जंगल में छुपे हैं उन्हें चाहिए कि वे धुंआ धार कर, आग जलाकर धूल उड़ाकर, अथवा भैंसे के सींग बजाकर अपने स्वामी को सावधान करें अर्थात् शत्रुदल की सूचना दें ताकि वह सुबुद्ध सावधान हो जाये | 197 ॥ पर्वतीय गुप्तचरों का कर्त्तव्य : प्रभौ दूरस्थिते वैरी यदागच्छति सन्निधौ । धूमादिभिर्निवेद्यः स चरैश्चारण्य संभवैः । ॥ आक्रमणकर्त्ता अपनी फौज का पड़ाव इस प्रकार की भूमि में डाले कि जो मनुष्य की ऊँचाई समान ऊँची हो, जिसमें अल्प संख्यक लोग प्रवेश कर सकें, घूमना तथा निकलना हो सके, एवं जिसके सामने विशाल सभा मण्डप हो जिसमें पर्याप्त जन स्थान पा सकें । स्वयं उसके मध्य में निवास कर चारों ओर सेना को निवेसित करे । सर्वसाधारण लोगों के आने-जाने के स्थान में पड़ाव डालने से अपना रक्षण-प्राण रक्षण नहीं हो सकता 198 ॥ शुक्र ने कहा है:- 1199 ॥ परदेशं गतो यः स्यात् सर्वसाधारणं नृपः । आस्थानं कुरुते मूढो घातकैः स निहन्यते ॥ 1 ॥ 570

Loading...

Page Navigation
1 ... 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645