Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 618
________________ नीति वाक्यामृतम् युद्धेच्छु विजयाभिलाषी पैदल, शिविकारूढ अथवा अश्वारोही होकर शत्रु भूमि में प्रवेश नहीं करे क्योंकि इस प्रकार से उसे अचानक शत्रु आक्रमण की आशंका होती है । सहसा होने वाले उपद्रवों से वह अपनी रक्षा नहीं कर सकेगा। 1100 ॥ शुक्र विद्वान का भी यही अभिप्राय है : परभूमिं प्रविष्टो यः परदारी परिभ्रमेत् । ये स्थितो या दोलायां घातकै हन्यते हि सः ॥1 ॥ जिस समय आक्रान्त, विजयाभिलाषा के कुञ्जर गजारोही होकर अथवा जपान ( सवारी विशेष ) पर आरुढ़ हो शत्रुभूमि में प्रविष्ट होता है तो वह क्षुद्रोपद्रवों से सुरक्षित रहता है । अर्थात् शत्रु द्वारा क्षुद्र - उपद्रवों द्वारा मारे जाने का भय नहीं होता। अभिप्राय यह है कि शत्रु स्थान में स्वयं की सुरक्षा का पूर्ण उपाय रखते हुए ही प्रवेश करना श्रेयस्कर है 11101 || भारि विद्वान का भी यहीं सुझाव है। -- परभूमो महीपालः करिणं यः समाश्रितः । व्रजन् जंपणमध्यास्य तस्य कुर्वन्ति किं परे ।। ।। उपर्युक्त विधि से शत्रु सेना या शत्रु भूमि में प्रवेश करने वाला भूपति सुरक्षित रहता है । ॥ इति 30वां युद्ध समुद्देशः ।" इति श्री परम् पूज्य, विश्ववंद्य, जगद्गुरु, प्रातः स्मरणीय, चारित्र चक्रवर्ती, घोर तपस्वी, एकाकी मोनप्रिय, वीतरागी, दिगम्बराचार्य मुनि कुञ्जर सम्राट् आचार्य 108 आदिसागर जी अंकलीकर के पट्टशिष्य परम् पूज्य तीर्थभक्त शिरोमणि, उद्भट 18 भाषा-भाषी परम् गुरुदेव आचार्य महावीर कीर्ति जी महाराज संघस्था, परम् पूज्य सन्मार्ग दिवाकर, वात्सल्य रत्नाकर, निमित्त ज्ञान शिरोमणि 108 आचार्य विमलसागर जी महाराज की शिष्या श्री 105 प्रथमगणिनी आर्यिका ज्ञानचिन्तामणि विजयामती माता जी द्वारा यह हिन्दी विजयोदय टीका का 30वां युद्धसमुद्देश श्री परम पूज्य तपस्वी सम्राट् घोरोपसर्गपरीषहजयी, भारतगौरव सिद्धान्त चक्रवर्ती आचार्य परमेष्ठी श्री सन्मति सागर जी महाराज के चरण सान्निध्य में समाप्त हुआ ।। ।। ॐ नमः परम् सिद्धाय ॥ ।। ॐ शान्तिः ॥ 571

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