Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 624
________________ नीति वाक्यामृतम् रहना, अर्थात् स्च्छन्दवृत्ति नहीं होना देना उनके द्वारा चौकसी रखना । 132 11 वेश्याएँ, कुत्तों के खप्पर, धोबी का शिला, के समान सर्वसाधारण व घृणास्पद होती हैं, उनमें कौन कुलीन पुरुष अनुरक्त होगा ? कोई भी सत्पुरुष अनुरागी नहीं होगा 1133 ॥ वेश्याओं के कुलक्रमागत- परम्परा से चले आये कार्य क्या हैं ? निम्न है :- दान देने में भाग्य फूटा रहता है- कभी भी दान देना नहीं जानता, 2. अनुरक्त पुरुषों द्वारा सम्मानित किये जाने पर भी अन्य पुरुषों के साथ काम सेवन करना, 3. आसक्त पुरुषों का लोभ व कुटिलता से तिरस्कार व घात करना, 4. अनुरागी पुरुषों द्वारा महान उपकार किये जाने पर भी उनकी अवज्ञा अपमान करना, 5. अनुरक्त पुरुषों द्वारा त्याज्य होने पर अर्थात् छोड़ दिये जाने पर अन्य पुरुषों के साथ रति क्रीडा करना कराना । इस प्रकार वेश्याएँ सदा व्यभिचारिणी, कृतघ्न व अविश्वासिनी होती हैं । सत्पुरुषों को उनका सहवास कभी भी नहीं करना चाहिए 113411 नोट :- इस उद्देश्य में सज्जातीत्व सम्बन्धी प्रकरण विशेष पठनीय मननीय व ग्राह्य है । वर्तमान में पाश्चात्य युग शिक्षण में रंगे लड़के लड़कियाँ अधिकांश धर्माचरण व जाति पाँति के बंधनों को तोड़ने-फोड़ने में ही अपना गौरव समझते हैं । परन्तु इसके दुष्परिणाम की ओर ध्यान नहीं देते । सज्जातीयत्व का रक्षण न केवल धर्म, समाज व जीवन के वर्तमान क्रिया-कलापों का रक्षण है अपितु परलोक की भी सुरक्षा है । दुर्गति से रक्षण का उपाय है । सद्गति का कारण है यही नहीं परम्परा से मोक्ष का साधन है । नं. 24 की नीति में स्पष्ट किया है कि सज्जाति का उल्लंघन करने वाला आगामी मोक्षमार्ग का अवरोधक अर्गल है । उसकी परम्परा में मोक्षमार्ग नहीं बनता । विजातीय, विधवा या नीच कुलीन कन्या के साथ भी विवाह वर्जनीय एवं निंद्य माना है । देखिये नं, 24 की नीति । अभिप्राय यह है कि वर्तमान की कुरीतियों का परिहार कर हमें धर्मानुकूल विवाहादि सम्बन्ध कर सदाचार, धर्माचार व शिष्टाचार पालन करना चाहिए । परम् पूज्य आचार्य श्री आदिसागर जी अंकलीकर, परम् पूज्य आचार्य श्री महावीर कीर्ति जी, आदि वर्तमान आचार्यों ने भी डंके की चोट पर सज्जातीत्व संरक्षण का उपदेश दिया था । हमें उस पर गहराई से विचार कर अपनी संतति का रक्षण करना चाहिए ।। " ।। इति विवाह समुद्देश | 13111 " इति श्री परमपूज्य, विश्ववंद्य, चारित्रचक्रवर्ती, मुनिकुञ्जर सम्राट् दिगम्बराचार्य, वीतरागी श्री 108 आचार्य आदिसागर जी अंकलीकर महाराज के पट्टशिष्य परम् पूज्य तीर्थभक्त शिरोमणि, 18 भाषाभाषी, आर्षपरम्परा के पोषक श्री 108 आचार्य महावीरकीर्ति जी के संघस्था, परम् पूज्य वात्सल्य रत्नाकर कलिकाल सर्वज्ञ श्री 108 आचार्य विमल सागर जी महाराज की शिष्या श्री 105 प्रथम गणिनी आर्यिका ज्ञान चिन्तामणि विजयामती जी द्वारा यह हिन्दी विजयोदय टीका का 31वां समुद्देश परम् पूज्य भारत गौरव, कठोर तपस्वी सम्राट अनेकपदालंकृत सिद्धान्त चक्रवर्ती आचार्य श्री 108 सन्मति सागर जी के पावन चरण सान्निध्य में समाप्त किया ।। 66 “ ।। ॐ शान्ति ॐ ।। 577

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