Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम्
सर्वस्य हि कृतार्थस्य मतिरन्या प्रवर्तते । तस्मात् सा देवकार्यस्य किमन्यैः पोषितैः विटैः 111 ॥ अशुभस्य पदार्थस्य भविष्यस्य प्रशान्तये 1 कालातिक्रमणं मुक्त्वा प्रतिकारो न विद्यते ॥11 ॥
जिस प्रकार बुभुक्षा पीडित मनुष्य को भोजन इष्ट-प्रयोजनीय होता है उसी प्रकार कामपीडा से पीडित पुरुष को भी शारीरिक ताप (मैथुनेच्छा) की तृप्ति के लिए स्त्री से प्रयोजन होता है अन्य कोई प्रयोजनीय नहीं होता । अतः उनमें राग व विरोध करने से कोई प्रयोजन नहीं होता । अर्थात् उनके साथ माध्यस्थ भाव रखे । क्योंकि उनमें अत्यासक्त होने पर पुरुष अपने कर्त्तव्य-राज-काज, धर्म ध्यान दान पूजादि एवं व्यापारादि से विमुख हो जाता है। धार्मिक व आर्थिक क्षति कर बैठता है एवं उनके साथ विरोध रखने वाला काम पुरुषार्थ से वंचित रह जाता है। अतः स्त्रियों के प्रति माध्यस्थ भाव ही श्रेयस्कर है । 127 | संसार में समस्त वस्तुएँ यथावसर प्रयोजनीय हुआ करती हैं । तिनका भी मनुष्य के दन्त मैल सफाई के काम में आ सकता है तो क्या मनुष्य से उसका कार्य सिद्ध नहीं होगा ? अवश्य ही होगा । अतएव मनुष्य को उत्तम, मध्यम और अधम सभी कोटि के मनुष्यों के साथ मैत्रीभाव धारण करना चाहिए । अधम- लघु पुरुषों की अवज्ञा कभी नहीं करना चाहिए । "सत्वेषु मैत्री" सिद्धान्त सर्वमान्य और सर्वव्यापी है । गौतम व विष्णु शर्मा ने उक्त दोनों बातों का समर्थन किया है :
न रागो न विरागो वा स्त्रीणां कार्योविचक्षणैः । पक्वान्नमिवतापस्य शान्तये स्वाच्च सर्वदा "I
दन्तस्य निष्कोषणकेन नित्यं कर्णस्य कण्डूयकेन चापि । तृणेन कार्यं भवतीश्वराणां किं पाद युक्तेन नरेण न स्यात् ॥ ॥1॥
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विजयेच्छु पुरुष - राजा अथवा विवेकी पुरुष किसी भी साधारण व्यक्ति के भी लेख - पत्रक आदि की अवज्ञा नहीं करे । क्योंकि राजाओं को शत्रुओं के लेख पत्रकों द्वारा ही उनकी गतिविधि मनोभावों का पता लगता शत्रुओं की चेष्टा अवगत करने के लिए उनके लेखों को प्रधानता देना चाहिए । इसी प्रकार सन्धि विग्रह व अन्य समस्त व्यापारों की स्थिति का परिज्ञान भी लेखों द्वारा ही होता है । 129 || राजनीति कुशल नृप सदैव साम्य भाव से सन्धि के ही प्रेमी होते हैं। वे तो पुष्पों से भी संग्राम करना नहीं चाहते फिर शस्त्रों से युद्ध किस प्रकार कर सकते हैं ? नहीं करते । | 130 ॥ गुरु व विदुर भी इसी प्रकार कथन करते हैं :लेख मुख्यो महीपालो लेखमुख्यं च चेष्टितम् । दूरस्थस्यापि लेखो हि लेखोऽतो नावमन्यते ॥1॥
पुष्पैरपि न योद्धव्यं किं पुनः निशितैः शरैः । उपायपतया ? पूर्वं तस्माद्युद्धं समाचरेत् ।।2।।
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