Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 640
________________ नीति वाक्यामृतम् करता । अर्थात् जिस प्रकार गाय का दूध चाहने वाला व्यक्ति गाय के आचार-विचार गोत्र के सम्बन्ध में विचार नहीं करता, अपितु गाय दुह कर अपने कार्य की सिद्धि करता है उसी प्रकार प्रयोजनार्थी भी "अर्थी दोषा न पश्यति" युक्ति के अनुसार दूसरे के आचार-विचारादि के दोषों की ओर दृष्टि न रखकर अपने प्रयोजन की सिद्धि पर ही दृष्टि रखता है, तभी सिद्धि प्राप्त करता है ।।64॥ शुक्र ने भी कहा है : कार्यार्थी न विचारं च कुरुते च प्रियान्वितः । दुग्धार्थी चयशो धेनोरमेध्यास्य प्रभक्षणात् ।।1॥ जिसके विशिष्ट एवं विस्तृत ज्ञान व सदाचार आदि गुणों का परिचय प्राप्त किया है एकानेक अनेक श्रेष्ठ गुणों की परख कर ली है ऐसे विद्वान पुरुष को कमनीय कान्ताएँ अत्यन्त रायमान-प्रसन्न करती हैं ।।65 ॥ चित्र चित्रित (फोटों) राजा का भी तिरस्कार नहीं करना चाहिए । क्योंकि उसमें ऐसा अपूर्व क्षात्र तेज विद्यमान रहता है जो क्षत्रिय वीरों के अंग में देवता रूप में विद्यमान रहता है । कहा भी जाता है "सर्व देव मयो राजा ।" अत: देव प्रतिमा समान नपति के चित्र व विम्ब का भी सम्मान करना चाहिए ।।66॥ शुक्र व गर्ग ने भी यही कहा स्त्रियं वा यदि वा किञ्चिदनुभूय विचक्षणाः । आत्मानं चापरं वापि रज्जयन्ति न चान्यथा In || नावमन्येत भूपालं हीनकोशं सुदुर्बलम् । क्षात्रं तेजोयतस्तस्य देवरुपं तनो वसेत् ॥ विचारपूर्वक कार्य न करने व ऋणी रहने से हानि, नया सेवक, प्रतिज्ञा, निर्धन अवस्था में उदारता, प्रयोजनार्थी एवं पृथक् किये हुए सेवक का कर्तव्य : कार्यमारम्यपर्यालोचः शिरो मुण्डयित्वा नक्षत्र प्रश्न इव 167 ।। ऋणशेषाद्रि पुशेषादिवावश्यं भवत्यायात्यां भयम् ।।58 ॥ नव सेवकः को नाम न भवति विनीतः ।।69॥ यथा प्रतिझं को नामात्र निर्वाहः ।।70॥अप्रामेऽर्थे भवति सर्वोऽपि त्यागी।71॥अर्थार्थी नीचराचराणान्नोद्विजेतू किन्नाधो व्रजति कूपेजलार्थी 172।।स्वामिनोपहतस्य तदाराधनमेव निवृत्ति हेतु जनन्या कृतविप्रियस्य हि बालस्य जनन्येव भवति जीवित-व्याकरणम् 173|| विशेषार्थ :- जो मनुष्य कार्य-आरम्भ करने के अनन्तर उसके लाभा-लाभ के विषय में विचार करते हैं वे मूर्ख उसी प्रकार मूढ ने जैसे जो शिर मुडा कर नक्षत्र, लग्न, मुहूर्त घडी आदि का विचार करने बैठे 1 अर्थात् जिस प्रकार शिरमुडन आदि क्रिया करने के पश्चात् शुभ दिन, घडी, लग्नादि का विचार करना व्यर्थ है उसी प्रकार कार्यारम्भ करके उसके शुभाशुभ के सम्बन्ध में विचार करना निरर्थक है । लाभ या हानि का विचार करने से कोई लाभ नहीं होता । कहावत है "उतावला सो बावरा" जल्दी का काम शैतान का होता है । कहा भी है - "बिना करे, सो पाछे पछताय ।" काम बिगाड़े आफ्नो जग में होय हंसाय ।।" इस प्रकार के कार्य हृदयशल्य कांटे के चुभने के समान कष्टदायक होता है 167 ।। 593

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