Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 626
________________ - नीति वाक्यामृतम् । तथा शीघ्र लिखने व पढ़ने की कला में चतुर ये राजा के गुण हैं । इन गुणों से अलङ्कृत पुरुष "राजा" बनने योग्य होता है ।।2 ॥ विरक्त पुरुष के चिन्हों को बताते हैं । जो ध्यानपूर्वक कथा श्रवण नहीं करता हो, बैठा भी रहे तो व्याकुल हो उठे । सुनने के समय मुखाकृति विवर्ण हो जाय, वक्ता के कथन को सुनते समय उसकी ओर मुख न करे मुंह लटकाये बैठा रहे, अपने स्थान से उठ कर अन्यत्र जा बैठे, वक्ता के श्रेष्ठ कार्य करने पर भी उसे दोषी बतावे, समझाने पर मौन धारण कर ले, कुछ भी उत्तर नहीं दे । जो स्वयं क्षमा (वक्ता की बात को सहन करने की शक्ति) नहीं होने के कारण अपना काल क्षेपण व्यर्थ ही करता हो - निरर्थक समय बिताता हो, जो वक्ता को अपना मुख न दिखावे, और अपने वायदे को भी पालन न करता हो, कथा से या अपने से विरक्त रहने वाले मनुष्य के ये चिन्ह हैं । उक्त चिन्हों से विरक्त की परीक्षा होती है ।। ।। अपने को आते हुए दूर से ही देखकर जिसका मुखकमल विकसित हो जाय, कुछ भी प्रश्न करने पर अपना सम्मान कर प्रेम से उत्तर दे, पूर्व में किये हुए उपकारों का जो स्मरण करे, कृतज्ञ हो, परोक्ष में गुणानुवाद करता हो, अपने मित्र के परिवार से भी सतत प्रीति करने वाला हो, ये सभी अपने से "अनाक्त पुरुष" के लक्षण सरहाना चाहिए. ।। अर्थात् उपर्युक्त गुणों से सम्पन्न पुरुष को नैतिक पुरुष अपना मित्र व प्रेमी समझे ।।4 || जिसका श्रवण श्रोत्रियेन्द्रिय को प्रिय लगे, अपूर्व प्रतीत हो, विरोधादि दोष शून्य-निर्दोष अर्थ का निरुपण करने से अतिशय युक्त शब्दालङ्कार-अनुप्रास आदि और अर्थालंकार (उपमा, उत्प्रेक्षा प्रभृति) से व्याप्त, हीनाधिक वचनो से रहित और जिसका अन्वय अति स्पष्ट हो - जो दूरान्वयी न हो ये काव्य के गुण हैं 1 अर्थात् उक्त गुण - युक्त "काव्य उत्तम" माना गया है । ॥ जिस काव्य में श्रुतकटु-सुनने में कठोर लगने वाले पदों की रचना, व अप्रसंगत अर्थ पाया जावे, दुर्बोध (कठिन) एवं अयोग्य शब्दों की रचना से युक्त, छन्द-भ्रष्ट होने के कारण जिसमें यथार्थ यतिविन्यास (विश्रान्तरचना) न हो, जिसकी पद-रचना कोश विरुद्ध हो, जिसमें स्वरचि-कल्पित (मन-गढन्त) ग्राम्य (असभ्य) पद रचना वर्तमान हो, ये काव्य के दोष हैं ।16। कवियों के 8 भेद हैं - 1. आचार्य श्री वीरनन्दीस्वामी, कालिदास आदि कवियों के समान ललित पदों की रचना द्वारा काव्य रचना करते हों, 2. अर्थकवि - जो महाकवि हरिश्चन्द्र एवं भारवि कवि समान गूढार्थ वाले काव्यों की रचना करते हों, 3. उभय कवि . जो ललित पद-शब्दावलि युक्त और गूढार्थ पदों की काव्य माला का निर्माण गुम्फ न करें ।।4। चित्रकवि - चित्रालङ्कार युक्त काव्य रचयिता, 5. वर्ण कवि - शब्दाडम्बर सहित काव्य रचना करने वाले कवि, 6. दुष्कर कवि - चाणक्य आदि कतियों के समान अत्यन्त कठिन शब्द सुमनों द्वारा काव्य माला गुम्फन करने वाला 7. अरोचक कवि - जिसकी काव्य रचना रुचिकर न हो, और 8. सम्मुखाभ्यवहारी - श्रोताओं के समक्ष तत्काल काव्य रचना करने वाला । इस प्रकार ये आठ प्रकार के कवि होते हैं ।17॥ ___ मानसिक आह्लाद, ललितकलाओं-काव्यरचनादि में चातुर्य, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषार्थों में सरलता से प्रवेश अर्थात् चारों पुरुषार्थों का सम्यग्ज्ञान एवं उमास्वामी आचार्य व व्यास आदि के समान संसार पर्यन्त स्थायी कीर्ति रहना, आदि का लाभ होता है, कवि होने से ये लाभ प्राप्त होते हैं । ॥ षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पञ्चम, धैवत और निषाद (सा रे ग म प ध नि) इन सातों स्वरों का आलाप शुद्ध (एक स्वर में अन्य का सम्मिश्रणसांकर्यन होना) हो, श्रोत्रेन्द्रिय को अत्यन्त प्रिय मालूम हो, (जिसमें अत्यन्त मिठास हो) सुकोमल पद रचना-युक्त अथवा अभिनय (नाट्य) क्रिया में निपुणता का प्रदर्शक हो, जिसके पदोच्चारण में घनाई हो, जिसमें त्रिमात्रा, वाले 579

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