Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम्
षड्ज व ऋषभ आदि स्वरों का विस्तार ((आरोहीपन) व संकोच (अवरोहीपन) वर्तमान हो, जिसमें एक राग से दूसरी राग में गति प्रारम्भ किया गया हो, उसी राग में उसका वेध पाया जावे, जिस राग में गीत प्रारम्भ किया गया हो, उसी राग में उसका निर्वाह-समाप्त हो एवं जिसे सुनकर हृदय फडक (आल्हादक) हो उठे ये गायन के गुण हैं । ॥ कर्कशता का अभाव, पाँच प्रकार का ताल तथा गीत व नृत्य के अनुकूल बजने वाला, वाद्य (बाजे) सम्बन्धी दोषों से रहित (निर्दोष) जिसमें यति (विश्रान्ति) यथोचित व प्रकट रीति से पाई जावे एवं जिनके सुनने से श्रोत्रेन्द्रिय को सुख प्रतीत हो, ये बाजे के गुण हैं Ino || जिसमें नेत्र, हस्त व पैरों की संचालन की क्रिया का एक काल में मिलाप गाने व बजाने के अनुकूल एवं यथोचित पाया जावे संगीत (गाने-बजाने) का अनुकरण करने वाला, जिसमें गायनाचार्य द्वारा सूचित किये हुए सघन और ललित अभिनय नाटक द्वारा अा-संचालन, अभिव्यक्त किया गया हो, तथा श्रृंगार आदि नवरस और आलम्बन भाव व उद्दीपन भावों के प्रदर्शन से जिसमें दर्शकों को आनन्द प्रतीत हो, लावण्य प्रतीत हो ये "नृत्य" के गुण हैं । अर्थात् उक्त गुणों वाला नृत्य सर्वोत्तम-श्रेष्ठतम माना जाता है 1111॥
महापुरुष, निंद्यगृहस्थ, तत्कालीन सुख चाहने वालों के कार्य, दान विचार, कर्जा के कटु फल, कर्जा लेने वाले के स्नेहादि के फल, अवधि, सत्यासत्य निर्णय व पापियों के दुष्कर्म :
स महान यः खल्वार्तोऽपि न दुर्वचनं ब्रूते 12॥ स किं गृहालक्ष्मी यत्रागत्यार्थिनो न भवन्ति कृतार्थाः ।।13॥ ऋणग्रहणेन धर्मः सुखं सेवा वाणिज्या च तादात्विकानां नायति हित वृत्तीनाम् ।।4॥ स्वस्य विधमानमर्थिभ्यो देयं नाविधमानम् ॥5॥ ऋण दातुरासन्नं फलं परोपास्ति: कलहः परिभवः प्रस्तावेऽर्थालाभश्च 16॥ अदातुस्तावत्स्नेहः सौजन्यं प्रियभाषणं वा साधुता च यावन्नार्थावाप्तिः ॥17॥ तदसत्यमपि नासत्यं यत्र न सम्भाव्यार्थहानिः ॥18॥ प्राणवधे नास्ति कश्चिदसत्यवादः I19॥ अर्थात् मातरमपि लोको हिनस्ति किं पुनरसत्यं न भाषते ।।20।
विशेषार्थ :- जो शिष्ट पुरुष पीडित-दुःखी किये जाने पर भी या निन्दा किये जाने पर भी दुर्वचन-कटुवाणी नहीं बोलता वह महान् कहा जाता है ।।12॥ वह गृहाश्रम क्या है जहाँ आया हुआ अतिथि तृप्त न हो । अर्थात् गृहस्थ का कर्तव्य दान देना है, यदि वह दान देकर आगत अतिथि का सम्मान नहीं करता तो वह गृहस्थ कहलाने का अधिकारी नहीं है ।।13 | शुक्र एवं गुरु ने कहा है :
दुर्वाक्यं नैव यो ब्रूयादत्यर्थंकुपितोऽपिसन् । समहत्वमावासोति समस्ते धरणी तले ।।1॥
शर्तिक 12 के सम्बन्ध में :
तृणानि भूमिरु दकं वाचा चैव तु सून्ता,
दरिद्रैरपि दातव्यं समांसन्नस्य चार्थिनः ।।1।। अर्थ :- तृण, भूमि, उदक, वचन और मधुरवाणी निर्धन गृहस्थ भी याचकों को प्रदान करता है ।। अर्थात् । आसनादि प्रदान करने में दरिद्री भी नहीं चूकता ।।
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