Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 616
________________ नीति वाक्यामृतम् विशेषार्थं : आक्रमण किसी अन्य शत्रु पर करे, वहाँ से सैन्य को लौटा कर अचानक अन्य पर (जो असावधान है) हमला करना "कूटयुद्ध" है । अर्थात् धोखे से पर भूपति का घात करना 'कूटयुद्ध' है 1190 ॥ शुक्र ने कहा है - अन्याभिमुखमार्गेण गत्त्वा किंचित् प्रयाणकम् ।। व्याघुट्य घातः क्रियते सदैव कुटिलाहवः || 1 || धोखे से विष पान कराना, घातक पुरुषों को भेजना, एकान्त में चुपणन स्वयं शत्रु के पास जाना व भेदनीति का प्रयोग करना, इत्यादि उपायों द्वारा शत्रु का घात करना इसे " तूष्णीयुद्ध" कहते हैं 191|| गुरु ने भी कहा है :विषदानेन योऽन्यस्य हस्तेन क्रियते बधः 1 अभिचारक कृत्येन रिपो मौनाहवो हि सः ॥ ॥ राजा किसी अकेले व्यक्ति को सैन्याधिकारी नहीं बनावे । क्योंकि एकाधिपत्व होने से वह मनमानी स्वेच्छाचार प्रवृत्ति करेगा। क्योंकि वह राजा से भी अधिक शक्तिशाली हो जायेगा । अतएव वह फूट जाने पर शत्रु से मिलकर अपने स्वामी के विरोध में हो जायेगा । फलतः राज्य, राजा व राष्ट्र का ही नाश कर देगा । अतः विरुद्ध होने पर सर्वनाश का कारण हो सकता है । 1921 भागुरी ने भी लिखा है : एकं कुर्यान्न सैन्येशं सुसमर्थ विशेषतः । धनाकृष्टः परैर्भेदं कदाचित् स परैः क्रियात् ॥ 11 ॥ ऋणीराजा, वीरता से लाभ, युद्ध विमुख की हानि, युद्ध प्रस्थानी व पर्वतवासी का कर्त्तव्य, छावनी योग्य स्थान, अयोग्य पडाव से हानि, शत्रु भूमि में प्रविष्ट होने के विषय में राजकर्त्तव्य : राजा राजकार्येषु मृतानां सन्तति मपोषयन्नृणभागीसागी स्यात् साधुनोपचर्यते तंत्रेण 1193 ॥ स्वामिनः पुरः सरणं युद्धेऽश्वमेधसमम् ॥194 ॥ युधि स्वामिनं परित्यजतो नास्तीहामुत्र च कुशलं 1195 ॥ विग्रहायोच्चलितस्यार्द्ध बलं सर्वदा सन्नद्धमासीत्, सेनापतिः प्रयाणमावासं च कुर्वीत चतुर्दिशमनीकान्य दूरेण संचरयस्तिष्ठेयुश्च 1196 ॥ धूमाग्नि रजोविषाणध्वनिव्याजैनाटविका: प्रणधयः परबलान्यागच्छन्ति निवेदयेयुः 1197 ॥ पुरुष प्रमाणोत्सेधमबहुजन विनिवेशनाचरणापसरणयुक्त मग्रतो महामण्डपावकाशं च तदंगमध्यास्य सर्वदा स्थानं दद्यात् 1198 || सर्वसाधारण भूमिकं तिष्ठतो नास्ति शरीररक्षा 1199 ॥ भूचरो दोलाचरस्तुरंगचरो वा न कदाचिद् परभूमौ प्रविशेत् ||100 ॥ करिणं जम्पाणं वाप्यध्यासीने न प्रभवन्ति क्षुद्रोपद्रवाः 1101 ॥ विशेषार्थ :- तुमुल युद्ध के अनन्तर राजा का कर्तव्य है कि समरभूमि में मरने वाले वीर सुभटों के बाल, बच्चे, पत्नी, पुत्र-पौत्रादि का संरक्षण करे यदि कोई ऐसा नहीं करता, तो वह उनका ऋणी रहता है और ऐसा अनर्थ करने से विरुद्ध हुए सचिवादि प्रकृतिवर्ग भी उसकी समुचित भक्ति, आदर-सत्कार नहीं कर सकते । अतएव राजा को चाहिए कि संग्राम में प्राणाहुति देने वालों के पुत्र-पौत्रादि सबका संरक्षण करने की व्यवस्था करे ।। अर्थात् सेवकों की सन्तति का पालन-पोषण करे 1193 || वशिष्ठ ने कहा है : मृतानां पुरतः संख्ये योऽपत्यानि न पोषयेत् । तेषां सहत्यायाः तूर्णं गृह्यते नात्र संशयः ॥ 11 ॥ 569

Loading...

Page Navigation
1 ... 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645