Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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-नीति वाक्यामृतम् हुआ अतिप्रसंग दोष अनिवार्य आयेगा अर्थात् सांख्य व नैयायिक दर्शन भी जैनदर्शन का विरोधी होने के कारण ।
आन्वीक्षिकी विद्या के वहिर्भूत हो जायेंगे । किसी के द्वारा निरर्थक निन्दा किये जाने पर क्या कोई शिष्ट पुरुष अशिष्ट सिद्ध हो सकता है ? निन्दा का पात्र होगा क्या ? नहीं हो सकता । आचार्य श्री सोमदेवजी ने यशस्तिलकचम्पू में प्राचीन नीतिकारों के प्रमाणों द्वारा आईदर्शनको-अध्यात्मविद्या-आन्वीक्षिकी सिद्ध किया है । इस सूत्र पाठ के विषय में निम्न प्रकार स्पष्टीकरण करते हैं :
(क) "सांख्यं योगो लोकायतं चान्वीक्षिकी बौद्धाहतोः श्रुतेः प्रतिपक्षत्वात" ऐसा पाठ भाण्डार कर रिसर्च गवर्न, लायब्रेरी पूना की हस्तलिखित मू. प्रति -(नं. 737 जो कि सन् 1975-76 में लिखी गई है) में है ।
(ख) "सांख्य, योगो, लोकायतं चान्वीक्षिकी बौद्धर्हतोः श्रुतेः प्रतिपक्षत्वात् " यह पाठ उक्त पूना लाइब्रेरी की ह.लि.मू.प्रति (नं.1012 जो कि सन् 1887 से 1891 में लिखी गई है) में है ।
(ग) "सांख्यं योगो लोकायतं चान्वीक्षिकी बौद्धार्हतोः श्रुतेः प्रतिपक्षत्वात् इति नैत्यानि मतानि" इस प्रकार का पाठ सरस्वतीभवन आरा की हस्त लिखित संस्कृत टीका में है ।
(घ) "सांख्ययोगी लोकायतं चालीक्षिकी लौनाईतोः छोः जिययाचा रेसा पाठ मु.मू. पुस्तक में हैं जो कि बम्बई के गोपालनारायण प्रेस में मुद्रित हुई है एवं श्रद्धेय प्रेमीजी ने प्रेषित की है ।
आचार्य श्री सोमदेव स्वामी का स्पष्टीकरण :
सांख्य योगो लोकायतं चान्वीक्षिकी, तस्यां स्यादस्ति स्यान्नस्ति इति नग्न श्रमणक इति वृहस्पति राखण्डलस्य पुरस्तं समयं कथं प्रत्यवतस्थे ? (यशस्तिलके सोमदेव सूरि आ.4 पृ.111)
अर्थात् यशोधर महाराज अपनी माता चन्द्रमती के द्वारा जैनधर्म पर किये गये आक्षेपों (यह अभी चला हुआ है इत्यादि) का समाधान करते हुए अन्य नीतिकारों के प्रमाणों से उसकी प्राचीनता सिद्ध करते हैं कि सांख्य योग,
और चार्वाक दर्शन ये आन्वीक्षिकी विद्याएँ हैं और उसी आन्वीक्षिकी विद्या-आध्यात्म विद्या- में अनेकान्त (वस्तु अपने स्वरूपादि चतुष्टय की अपेक्षा सद्रूप-विद्यमान है और पर चतुष्टय की अपेक्षा असद्रूप है अविद्यमान है इत्यादि) का समर्थक-नम्नश्रमणक आईदर्शन (जैन-दर्शन) भी अन्तर्भत है-सम्मिलित है।" इस प्रकार व ने इन्द्र के समक्ष जिस अनेकान्त समर्थक जैन दर्शन को कैसे समर्थित किया ? अर्थात् यदि जैनदर्शन नवीन प्रचलित है तो क्यों वृहस्पति ने इन्द्र के समक्ष उसे आन्वीक्षिकी विद्या में स्वीकार किया ?
आचार्य श्री के उक्त कथन से प्रमाणित है-निर्विवाद सिद्ध है कि आन्वीक्षिकी विद्या को वृहस्पति आदि ने जैनदर्शन की आध्यात्म विद्या-आन्वीक्षिकी विद्या रूप में स्वीकृत की है ।
"अमृत" में आचार्य जी कहते हैं कि केवल वेदविरोधी होने से कुछ नीतिकारों ने बौद्ध और जैन दर्शन को आन्वीक्षिकी विद्या नहीं मानते परन्तु आ. श्री के उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट सिद्ध है अन्य निष्पक्षनीतिकारों ने भी श्री जैनदर्शन को आन्वीक्षिकी विद्या निर्विवाद स्वीकार किया है ।। मान्धीक्षिकी-आध्यात्म विद्या के लाभ
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