Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम्
अर्थ :- जिस कार्य के करने से शुभ-योग्य विषय की प्राप्ति और अशुभ पापों का त्याग हो, हृदय में आनन्द से जानत हो उसे उत्साह कहते हैं । जिस कार्य का सम्पादन कर सन्तोष मिलता है, हृदय प्रफुल्ल होता है वस्तुतः वही उत्साह है। प्रयल का स्वरूप कहते हैं :
प्रयलः परनिमित्तको भावः ।।30॥ अन्वयार्थ :- (परनिमित्तकः) दूसरे के कार्य के करने का (भाव:) परिणाम (प्रयत्नः) प्रयत्न (अस्ति) है । 30॥
किसी के प्रति उपकार करने का निश्चय प्रयत्न कहलाता है ।
विशेषार्थ :- भलाई करने की बुद्धि का जाग्रत होना प्रयत्न है । मनुष्य प्रयत्नशील प्राणी है । कुछ न कुछ करना उसका स्वभाव है । परन्तु विवेकपूर्वक किसी का कोई विध अपकार न हो यह दृष्टि में रखकर कार्य करना सत्प्रयत्न कहलाता है । गर्ग विद्वान का कथन है :
परस्य करणीये यश्चित्तं निश्चित्य धार्यते । प्रयत्नः स च विज्ञेयो गर्गस्य वचनं यथा ॥1॥
अर्थ :- किसी अर्थी की भलाई करने की दृढ चित्तवृत्ति होती है उसे प्रयल जानना चाहिए । गर्ग विद्वान का यह अभिप्राय है - कथन है । अर्थात् नीतिज्ञ जन-शिष्ट पुरुषों का दूसरों की भलाई-उपकार करने की प्रवृत्ति होती है उसे प्रयत्न कहना चाहिए । पर दूसरों को कष्ट देना प्रयत्न नहीं है वह तो कोरा दम्भ है । "परोपकाराय सतां विभूतयः" सत्पुरुषों की विभूति-कला, गुण, कर्म दूसरों के हित-कल्याण करने वाले होते हैं ।
संस्कार का लक्षण :
सातिशयलाभः संस्कारः ॥31॥
अन्वयार्थ :- (सातिशयलाभ:) विशेष प्रतिष्ठादि से प्राप्त सम्मानादि (संस्कारः) संस्कार है ।
श्रेष्ठ-सत्पुरुषों व नृपति आदि द्वारा सम्मानादि प्राप्त प्रतिष्ठा को संस्कार कहते हैं । अथवा सम्यक् पूर्वक किसी भी कार्य विशेष का अभ्यास करने से प्राप्त नियतवत्ति संस्कार कही जाती है । संस्कार मानव के का परिपक्व रूप है । जिस प्रकार मिट्टी के कलश का अग्नि संस्कार करने पर उसमें जल धारण की योग्यता प्रकट हो जाती है, उसी प्रकार निरन्तर सत्प्रयत्नों द्वारा मानव को राजमान्यतादि गौरव प्रास होते हैं वे संस्कार कहे जाते हैं 181॥ गर्ग विद्वान ने भी कहा है :
सम्मानाद् भूमिपालस्य यो लाभः संप्रजायते । महाजनाच्च सद्भक्तेः प्रतिष्ठा तस्य सा भवेत् ॥
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