Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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मीति वाक्यामृतम्
यशस्तिलक चम्पू में लिखा है :
सर्वज्ञ सर्व लोकेशं सर्वदोषविवर्जितम् । सर्व सत्वहितं प्राहु राप्तमात्मतोचितः ।। ज्ञानवन्मृग्यते कैश्चित्त दुक्तं प्रतिपद्यते । अज्ञोपदेशकरणे विप्रलम्भन शङ्किभिः ।।2॥ यस्तत्वदेशनाद् दुःख वार्धे रु द्धरते जगत् । कथं न सर्वलोके शः प्रह्रीभूतजगत्त्रयः ।।3॥ क्षुत्पिपाशाभयं दोषश्चिन्तनं मूढतागमः । रागोजरा रुजा मृत्युः क्रोधः स्वेदो मदो रतिः 14॥ विस्मयो जननं निद्रा विषादोऽष्टादश ध्रुवाः । त्रिजगत्सर्वभूता ना दोषाः साधारण इमे ।।5।। एमिर्दोषैर्विनिर्मुक्तः सोऽयमाप्तो निरञ्जनः । स एव हेतुः मूक्तीनां केवलज्ञान लोचनः ।।6।।
यश.ति,च.आ.6
अर्थ :- जो सर्वज्ञ, सर्वलोक का ईश्वर-संसार का दुःख सागर से उद्धार करने वाला, क्षुधा, तुषादि 18 दोषों से रहित (वीतराग) एवं समस्त प्राणियों को मोक्षमार्ग का प्रत्यक्ष उपदेश देने वाला है ऐसे तीर्थंकर प्रभु को 'ईश्वर' कहते हैं In ||
जिसकी हम आराधना कर रहे हैं उसका सर्वज्ञ होना नितान्त आवश्यक है । क्योंकि यदि अज्ञ-मूर्ख या अल्पज्ञ मोक्षमार्ग का उपदेशक होता है तो उसके वचनों में अनेक प्रकार के विरोध आदि दोष आ सकते हैं । इसलिए सज्जन पुरुष सच्चे प्रामाणिक वक्ता का अन्वेषण करते हैं । उसी द्वारा उक्त वचनों को प्रमाण मानते हैं। 2 ।।
जिन तीर्थकर प्रभु के मोक्षोपयोगी प्रवचन-उपदेश से संसार के पामर प्राणियों का उद्धार होता है । उनके चारणाम्बुजों में तीनों लोकों के प्राणी उनके चरणों में नम्र हो गये हैं । फिर वह तीनों लोकों का नाथ ईश्वर क्यों नहीं होगा ? अवश्य ही होगा, है ही 13 ॥
क्षुधा, पिपासा, भय, द्वेष, चिन्ता, अज्ञान, राग, द्वेष, रोग, जरा, मृत्यु, क्रोध, स्वेद (पसीना), मद, रति, आश्चर्य, जन्म, निद्रा, विषाद ये 18 दोष संसार के समस्त प्राणियों में नियम से समान रीति से पाये जाते हैं ।। अत: इन 18 दोषों से रहित, निरञ्जन-पाप कालिमा से रहित (विशुद्ध) और केवलज्ञान रूप नेत्र से युक्त (सर्वज्ञ) तीर्थङ्कर,
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