Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति
के दोष हैं । अभिप्राय इतना ही है कि इन दोषों से युक्त व्यक्ति सेनापति पद के अयोग्य है, इससे राज्य विकास न होकर उसकी क्षति ही होगी । इस विषय में गुरु विद्वान ने भी कहा है :
सेनापतिं स्व दोषाढ्यं यः करोति स मन्दधीः F न जयं लभते संख्ये बहुसेनोऽपि स क्वचित् ॥11॥
अर्थ :- जो मन्दबुद्धि नृप सेनापति के दोषयुक्त पुरुष को सेनापति पद नियुक्त करता है वह सेनापति प्रचुर सेनायुक्त होने पर भी विजयलक्ष्मी प्राप्त नहीं कर सकता । कार्यसिद्धि योग्यता की अपेक्षा करती है ॥12 ॥
जो राज सेवक राजकीय प्रधान पुरुषों की, नापित (नाई) की तरह विनय करता है वह चिरकाल तक सुखी रहता है । अर्थात् जिस प्रकार नापित नगर में प्रविष्ट होकर समस्त मनुष्यों के साथ विनय का बर्ताव करने से जीवन निर्वाह करता हुआ सुखी रहता है उसी प्रकार राजकीय पुरुषों के साथ विनयशील राजसेवक भी चिरकाल सुखीसम्पन्न रहता है ॥13 ॥ शुक्र विद्वान ने भी कहा है :
सेवकः प्रकृतीनां यो नम्रतां याति सर्वदा 1 स नन्दति चिरं कालं भूपस्यापि प्रियो भवेत् ॥11॥
अर्थ जो राजसेवक राजकीय प्रकृति अमात्यादि की सदा विनय करता है वह राजा के प्रेम का भाजन होकर चिरकाल तक सुखी जीवनयापन करता | 1 || श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने कुरल काव्य में कहा है
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सेनापतेरसन्दावे सेवा काऽपि सन्तु यद्यपिभूयांसः सैनिका रणकोविदाः
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प. छे. 76पृ. 77.
अर्थ :- कितने ही संग्रामकला के निष्णात सैनिक क्यों न हों, सेनापति के बिना सेना का अस्तित्व नहीं रह सकता। विजय की तो बात ही क्या है ? इसीलिए कहा है कि :
या न्यूना नास्ति संख्यायां नार्थाभावेन पीड़िता । तस्या अस्ति जयो नूनं सेनाया इति निश्चयः ॥ 9 ॥
कु.का.
अर्थ :- जिस सेना में सुभटों की संख्या कम नहीं है और धनाभाव भी नहीं है, रसदादि की कमी से जो पीड़ित नहीं है उसकी विजय निश्चित है । यह सब सेनानायक पर निर्भर करता है ।
स्वचक्र व परचक्र का आक्रमण राज्य पर होना स्वाभाविक है, शत्रु-मित्र का योग है । कभी शत्रुओं का प्रावल्य होता है तो कभी मित्रों का । अतः इस स्थिति में सेना सुभटों का होना अनिवार्य है । वीर पुरुषों का संग्रह,
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