Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम्
अर्थ :- राजा धर्मज्ञ है तो प्रजा भी धर्मात्मा-सरल होती है । पापी राजा हो तो प्रजा का भी पापात्मा होना सरल है और राजा यदि दुष्ट है-खल-दुर्जन है तो प्रजा भी इन्हीं विशेषणों युक्त होगी । क्योंकि प्रजा अनुकरणशील होती है । जैसा राजा वैसी प्रजा भी शिष्ट व शुद्ध अथवा दुष्ट होती है ।20 ॥
राजा द्वारा तिरस्कृत व्यक्ति का सर्वजन तिरस्कार व अपमान करते हैं । इसी प्रकार राज सम्पन्न राजा से सम्मानित यदि कोई है तो प्रजा-संसारी जीव भी उसकी अभ्यर्थना-राजकीय दृष्टान्तानुसार पूजन करते हैं । अतएव प्रत्येक स्वतंत्र जीव उसका सम्मान आदर करता है । नारद विद्वान ने भी इसका समर्थन किया है :
अवज्ञातस्तु यो राज्ञा स विद्वानपि मानवैः । अवज्ञायेत मूर्योऽपि पूज्यते नृप पूजितः ॥1॥
वही अर्थ है। राज कर्त्तव्य व अधिकारियों की अनुचित जीविका :
प्रजा कार्य स्वयमेव पश्येत् ।।32॥ यथावसरमसङ्ग द्वारं कारयेत् ।।33 ॥ दुर्दशो हि राजा कार्याकार्य विपर्यासमासन्नैः कार्यते द्विषतामति सन्धानीयश्च भवति 134 ।। वैद्येषु श्रीमतां व्याधि वर्द्धमानादिव नियोगिषु भर्तृव्यसनादपरो नास्ति जीवनोपाय ।।35॥
अन्वयार्थ :- (प्रजाकार्यम्) प्रजा की व्यवस्था (स्वर देउ) राजा ल्हयं ही ( पाये) देखें । 32। (यथावसरम्) समय-समय पर (असङ्ग) निरावरण-खुला (द्वारम्) दरवाजा (कारयेत्) रखाना चाहिए 133 ।। (हि) यदि (राजा) नृपाल (दुर्दर्श:) कठिन दर्शनीय नहीं है तो (कार्यम्) कार्य (अकार्यम्) नहीं करने योग्य (विपर्यासम्) विपरीत (आसन्नैः) निकटवर्तियों द्वारा (कार्यते) कर दिया जाता है (च) और (द्विषताम्) शत्रु (अतिसंधानीयः) वगावतीविद्रोही (भवति) हो जाता है । 84 ॥ (वैद्येषु) वैद्यो-चिकित्सक की (श्रीमताम्) धनवानों की (व्याधिः) रोग (वर्द्धनम्) बढ़ाने के समान (इव) इसी प्रकार (नियोगिषु) मन्त्री आदि की (भर्तृ) राजा को (व्यसनात्) व्यसनों में फंसाने से (परः) अन्य (जीवनोपायः) आजीविका का उपाय (नास्ति) है |B5 ||
विशेषार्थ :- नुपति को चाहिए कि अपने राजशासन के कार्यों-शिष्टापालन-दुष्ट निग्रह आदि के विषय में । स्वयं विचार करे । मंत्री आदि के आश्रय ना रहे । क्योंकि रिश्वत के लालच में पड़कर मंत्री आदि प्रजा का ध्यान बराबर नहीं रख सकेंगे । अन्याय से प्रजा दु:खी होगी । देवल विद्वान ने कहा है :
ये स्युर्विचारका राज्ञामुत्कोचा प्राप्यतेऽन्यथा ।
विचारयन्ति कार्याणि तत् पापं नृपतेर्यतः ।।1॥ अर्थ :- प्रजा के कार्यों को राजा यदि अमात्यादि के ऊपर छोड़ता है तो प्रजा को कष्ट भोगना पड़ता है। अतः राजा का कर्तव्य है कि स्वयं ही प्रजा की देखभाल करे । सहायक के रूप में मन्त्री आदि का विचार ज्ञात करे 182॥
राजा को चाहिए कि समय-समय पर साधारण जनता को भी दर्शनार्थ अपना द्वार खुला रक्खे, जिससे प्रजा
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