Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 563
________________ नीति वाक्यामृतम् A शपथ के अयोग्य अपराधी व उनकी शुद्धि का उपाय, लेख व पत्र के संदिग्ध होने पर फैसला, न्यायाधीश के बिना निर्णय की निरर्थकता, ग्राम व नगर सम्बन्धी मुकद्दमा, राजकीय निर्णय एवं उसको न मानने वाले को कड़ी सजा : लिङ्गिनास्तिकस्वाचारच्युतपतितानां दैवी क्रिया नास्ति ।।18 ॥ तेषां युक्तितोऽर्थ सिद्धिरसिद्धिर्वा ॥19॥ संदिग्धे पत्रे साक्षे वा विचार्य परिच्छिंद्यात् ॥20॥ परस्पर विवादे न युगैरपि विवादपरिसमाप्तिरानन्त्याद्विपरीतप्रत्युक्तीनाम् ।।21 ।। ग्रामेपुरे वा वृतो व्यवहारस्तस्य विवादे तथा राजानमुपेयात् ।।22 ।। राजा दृष्टे व्यवहारे नास्त्यनुबन्धः ।।23 ॥ राजाज्ञा मर्यादां वाऽतिक्राम् सद्यः फलेन दण्डेनोपहन्तव्यः ।।24।। अन्वयार्थ :- (लिङ्गिः) सन्यासी (नास्तिक:) नास्तिक (स्वाचारच्युत) आचरणभ्रष्ट (पतितानाम्) पतितजनों को (दैवीक्रिया) शपथ कार्य (नास्ति) नहीं है ।।18 ॥ (तेषाम्) उनको (युक्तितः) युक्तियों से (अर्थसिद्धिः) प्रयोजन सिद्धि (वा) अथवा (असिद्धिः) असिद्धि [कर्त्तव्या] करनी चाहिए ।।19॥ (पत्रे) लेख (वा) अथवा (साक्षेः) गवाही के (सन्दिग्धेः) सन्देहास्पद होने पर (विचार्य) विचार कर (परिच्छिन्दियात्) निर्णय करे ।।20 ॥ (परस्पर विवादे) विवाद होने पर (युगैः) युगों से (अपि) भी (विवादपरिसमाप्तिः) विवाद का अन्त (न) नहीं (आनन्त्यात्) अनन्तों (विपरीत) विरुद्ध (प्रत्युक्तोनाम्) प्रत्युत्तर युक्तियों का 121 1 (ग्रामे) गाँव में (पुरे) नगर (वा) अथवा (वृतः) चारित्र (व्यवहारः) व्यवहार सम्बन्धी (विवादे) झगडा होने पर (तस्य) उसका (तथा) उचित न्याय को (राजानम्) राजा केपास (उपेयात्) लाना चाहिए 1122 ।। (राजा) राजा से (दृष्टे) देखने पर (व्यवहारे) मुकदमे-या-झगड़े में { अनुबन्धः) शंकादि (न) नहीं (अस्ति) है ।।23 ।। (राजाज्ञाम्) राजा की आज्ञा का (वा) अथवा (मर्यादाम्) सीमा के (अतिक्रामन्) उलंघन करने पर (सद्यः) शीघ्र (फलेन) फल (दण्डेन) दण्ड द्वारा (उपहन्तव्यः) मृत्यु दण्ड देना चाहिए ।।24॥ विशेषार्थ :- सन्यासी वेषधारी, नास्तिक (ईश्वर को नहीं मानने वाले), चारित्रहीन व जातिच्युत मानवों के अपराध यदि साक्षी-गवाह आदि द्वारा सिद्ध नहीं होने पर भी धर्माध्यक्ष-न्यायाधीश को उन्हें शपथ दिलाकर उनके अपराध साबित नहीं कराना चाहिए क्योंकि ये लोग प्रायः असत्य-झूठी शपथ भी खाकर अपने को निर्दोष सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं। अत: न्यायाधीश को सुयोग्य बलिष्ठ युक्तियों द्वारा उनकी प्रयोजन सिद्धि का उपाय करना चाहिए । अर्थात् अनेकों उपायों द्वारा उन्हें अपराधी या निरपराध सिद्ध कर दण्डित करना अथवा छोड़ देना चाहिए ।।18-19 ॥ वादरायण ने भी कहा है - युक्त्या विचिन्त्य सर्वेषां लिंगिनां तपसः क्रिया । देवा वचनतया शुद्धिरसंगत्या विवर्जनम् ।।1॥ सन्यासियों आदि का न्याय इसी प्रकार करना चाहिए ।।। 516

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