Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम्
प्रकार बात कहने वाले 100 बध के अयोग्य और 1000 एक हजार व्यक्ति अदण्डनीय होते हैं 1196 || शुक्र ने भी यही कहा है :
बुद्धिपौरुषगर्वेण दण्डयेन्न महाजनम् I एकानुगामिकं राजा यदा तु शत्रुपूर्वकम् ॥1॥
जिस भूमि का अधिपति अपराध के प्रतिकूल अधिक दण्डविधान नहीं करे अपितु न्यायनीति से चलता है, सदाचारी है उसकी भूमि राजन्वती प्रशस्त भूमि है 197 || गुरु ने भी कहा है :
यस्यां राजा सुवृत्तः स्यात् सौम्यवृक्षः सदैव हि । सा भूमिः शोभते नित्यं सदा वृद्धिं च गच्छति ॥ 11 ॥
जो राजा स्वयं की बुद्धि का उपयोग नहीं करता, बिना सोचे विचारे ही दूसरों की प्रेरणा से अपराधियों के अर्थमान व प्राणमान को नहीं ज्ञात कर यों ही उन्हें प्राणघात का दण्ड, धनहरण, मानहरण आदि दण्ड निर्धारित कर दे । सौ रुपये के योग्य दण्ड पर सहस्त्र और सहस् के स्थान पर लक्ष का दण्ड घोषित करे, तुच्छ दोष पर फांसी की सजा देने वाला "असुरवृत्ति" कहलाता है । राक्षसवृत्ति वाला माना गया है 1198 ॥ भागुरि ने भी कहा है
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पर वाक्यैर्नृपो यत्र सद्वृत्तां सुप्रपीडयेत् । प्रभूतेन तु दण्डेन सोऽसुरवृत्ति रुच्यते #1
अल्प अपराध होने पर भी कठोर मृत्यु दण्डादि देकर पीडित करे उसे 'असुरवृत्ति' राजा कहते हैं । 198 ॥ जो राजा स्वयं की बुद्धि का उपयोग नहीं करके, बिना सोचे-विचारे दूसरी के कहने मात्र से चाहे जिसके प्रति कुपित और प्रसन्न हो उसे 'पर प्रणेय' कहते हैं 1199 ॥ गुरु विद्वान ने भी कहा है :
परप्रणेयो भूपालो न राज्यं कुरुते चिरम् । पितृपैतामहं चेत् स्यात्किं पुनः परभूपजम् ॥1 ॥
भृत्य या सेवक को अपने स्वामी की आज्ञापालन करना अनिवार्य है । परन्तु वही आज्ञा मान्य करनी चाहिए जिससे स्वामी को भविष्य में कष्ट न हो, विपत्ति न आवे
।।100 ।। गर्ग ने भी कहा
मंत्रिभिस्तत्प्रियं वाच्यं प्रभोः श्रेयस्करं च यत् । आयत्यां कष्टदं यच्च कार्य तन्न कदाचन ।। ।।] ॥
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वही अर्थ है ।
राजा द्वारा ग्राह्य व दूषित धन तथा धनप्राप्ति :
निरनुबन्धमर्थानुबंधं चार्थमनुगृह्णीयात् ॥101॥ नासवर्थो धनाय यत्रायत्यां महानर्थानुबन्ध: 11102 ॥ लाभस्त्रिविधोनवो भूतपूर्वः पैत्र्यश्च ।।103 |