Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम् ।
है तब उसको शक्तिशाली सेना भी नष्ट हो जाती है- अधीर बन जाती है । अतः विजिगीषु को दुर्बल सैन्यबल नहीं रखना चाहिए॥ कौशिक ने भी कहा है :- ||17॥
कातराणां च यो भंगो संग्रामे स्यान्महीपतेः । महि भंगं करोत्येव सर्वेषां नात्र संशयः ॥1॥
संग्राम भूमि में पृथिवीपति को अकेले युद्ध करने नहीं जाना चाहिए ।।18 ॥ गुरु ने भी कहा है :
एकाकी यो बजेद्राजा संग्रामे सैन्यवर्जिताः ।
स नूम गृथुनामोति यापि स्याद्धनञ्जयः ।। अर्थ :- अर्जुन के समान वीर योद्धा को भी अकेले समरांगण में जाने से खतरा होता है । अतएव अकेले युद्ध में नहीं जाना चाहिए In ॥ प्रतिग्रह का स्वरूप व फल, युद्ध की पृष्ठभूमि, जलमाहात्म्य :
राजव्यञ्जनं पुरस्कृत्य पश्चात्स्वाम्यधिष्ठितस्य सारबलस्य निवेशनं प्रतिग्रहः ॥19॥ सप्रतिग्रहं बलं साधुयुद्धयोत्सहते ।।20 ॥ पृष्ठतः सदुर्गजलः भूमिबलस्य महानाश्रयः ॥1॥नद्यानीयमानस्य तदस्थ पुरुषदर्शनमपि जीवित हेतुः ॥22॥ निरन्नमपि सप्राणमेव बलं यदि जलं लभेत् ॥23॥
विशेषार्थ :- राज व्यञ्जन अर्थात् चिन्ह स्वरूप रणभेरी व प्रस्थान नगाड़े बजवाकर पुनः भूपति को सन्नद्धकर वलिष्ठ प्रचुर सैन्यदल तैयार करे । पुनः शत्रु पर आक्रमण करने को सेना स्थापित करना "प्रतिग्रह" कहलाता है। इस प्रकार प्रतिग्रह पूर्वक युद्धविजयाकांक्षी यदि चढ़ाई करता है तो सेना विशेष उत्साह से संग्राम संलग्न होती है जिसका शुभ प्रतिफल है विजयलाभ 119-20 ॥ नारद व शुक्र का भी प्रतिग्रह का यही लक्षण है :
स्वामिनं पुरतः कृत्वा तत्पश्चादुत्तमं बलम् । धियते युद्धकाले यः स प्रतिग्रह संज्ञितः ॥
"नारद"
राज पुरः स्थितो यत्र तत्पश्चात्संस्थितं बलम् । उत्साहं कुरुते युद्धे ततः स्याद्विजये पदम् ।।1॥
युद्ध के अवसर पर सेना के पीछे दुर्ग व जल-सहित पृथ्वी रहे तो उसे पर्याप्त सहारा होता है । कारण कि यदि पराजित हो जाये तो दुर्ग में प्रविष्ट होकर, जल द्वारा अपना जीवन रक्षण कर सकता है । यह जल का आश्रय उसी प्रकार आलम्बन व धैर्य का साधन होता है जिस प्रकार सरिता के प्रवाह में प्रवाहित होने वाला पुरुष तटस्थ पुरुष को देख कर परमानन्द-आशान्वित होता है । जीवन का रक्षण समझ हर्षान्वित होता है 1121-22 || गुरु व जैमिनी ने भी कहा है :
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