Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 609
________________ नीति वाक्यामृतम् यावन्मात्रोऽपराधश्च शत्रुणा हि कृतोभवेत् । तावत्तस्याधिकं कृत्वासन्धिः कार्यो बलान्वितैः ॥ 1 ॥ जिस प्रकार ठण्डा लोहा ठण्डे लोहे के साथ नहीं जुड़ता, किन्तु गरम लोहे से जुड़ता है उसी प्रकार दोनों पक्ष कुपित होने पर परस्पर सन्धि के सूत्र में बंधते हैं ।158॥ शुक्र भी कहते हैं : द्वाभ्यामपि तप्ताभ्यां लोहाभ्यां च यथा भवेत् । भूमिपानां च विज्ञेयंस्तथासन्धिः परस्परम् ॥1॥ विजय का उपाय, शक्तिशाली का कर्त्तव्य व उन्नति, सन्धियोग्य शत्रु, तेज : तेजो हि सन्धाकारणं नापराघस्य क्षान्तिरुपेक्षा वा ॥ 159 ॥ उपचीयमान घटेनेवाश्मा हीनेन विग्रहं कुर्यात् 1160 ॥ दैवानुलोम्य पुण्यपुरुषोपचयोऽप्रतिपक्षता च विजिगीषोरुदयः । 161 || पराक्रमकर्कशः प्रवीरानीकश्चेद्धीनः सन्धाय साधूपचरितव्यः 1162 || दुःखामर्षजं तेजो विक्रमयति ॥3 ॥ विशेषार्थ :- अपराधी शत्रु पर विजय प्राप्त करने का साधन सैन्यबल व कोषशक्ति है न कि शत्रु के प्रति क्षमाभाव या उपेक्षा बुद्धि । अर्थात् तेन द्वारा शत्रु को जीता जा सकता है, क्षमा या उपेक्षा से नहीं 1159 ॥ जिस प्रकार नन्हा सा पाषाण खण्ड भी बड़े घड़े को भिन्न करने में सक्षम होता है उसी प्रकार सैन्यशक्ति सुदृढ़ रहने पर बलिष्ठ भी शत्रु परास्त किया जा सकता है । अतः अपनी सेना और कोष बलशाली रहने पर ही शत्रु पर आक्रमण करना चाहिए | 160 | जैमिनि ने भी यही कहा है : यदि स्याच्छक्ति संयुक्तो लघुः शत्रोश्च भूपतिः । तदा हन्ति परं शत्रुं यदि स्यादति पुष्कलम् ॥॥॥ अर्थं सामान्य है । पूर्व संचित पुण्य का उदय, अर्थात् भाग्य की अनुकूलता, उत्तम, कर्त्तव्यनिष्ठ पुरुषों का समागम और विरोधियों का अभाव आदि गुणों का समन्वय होने पर विजयेच्छु का उत्थान होता है ||61|| गुरु ने भी कहा है :यदि स्यात्प्राञ्जलं कर्म प्राप्तियोग्य नृणां तथा । तथा चाप्रतिपक्षत्वं विजिगीषोरिमे गुणाः ।। 1 ॥ वही अर्थ हैं । विजयवाञ्छा रखने वाला नृप देखे कि शत्रु अपने से अधिक पराक्रमी है तो उसे चाहिए कि उसके साथ संग्राम न करके सन्धि कर लेना चाहिए 1162 ॥ शुक्र ने भी कहा है : यदा स्याद्वीर्ययान् शत्रुः श्रेष्ठ सैन्यसमन्वितः । आत्मानं बलहीनं च तदा तस्योपचर्यते ॥1॥ 562 वही अर्थ है ।

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