Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 594
________________ नीति वाक्यामृतम् सभायां पक्षपातेन कार्यार्थी यत्र हन्यते । न सा सभा भवेच्छस्या शिष्टैस्त्याज्यासुदूरतः ॥॥ पक्षपात जहाँ हो उस सभा को दूर ही से त्याग देना चाहिए ।11 ॥ गृह में प्राप्त हुई सम्पदा के ग्रहण करने में तिथि, नक्षत्र, बार आदि के शुभाशुभ का विचार नहीं करना चाहिए। अपितु उसे तत्काल ग्रहण कर लेना चाहिए । क्योंकि जिस समय लक्ष्मी का आगमन होता है वह क्षण, दिन, घड़ी नक्षत्र, तिधि आदि सभी शुभ ही माने जाते हैं ।। सभी ग्रह वलिष्ठ होते हैं ।।94 ॥ गर्ग ने भी कहा है : गृहागतस्य वित्तस्य दिनशुद्धिं न चिन्तयेत् । आगच्छति यदा वित्तं सदैव सुशुभं दिनम् ।।1॥ जिस प्रकार गज से गज बांधा जाता है, उसी प्रकार लक्ष्मी-धन से वित्तार्जन किया जाता है । अर्थात् धन से धन कमाया जाता है ।195॥ जैमिनि ने कहा है : अर्था अर्थेषु बध्यन्ते गरिव महागजः । गजा गजैबिना न स्युरा अथैर्बिना तथा ।1। दण्डनीति का निर्णय, प्रशस्तभूमि, राक्षसीवृत्ति वाले पर प्रेमी राजा, आज्ञापालन : न केवलाभ्यां बुद्धि पौरुषाम्यां महतो जनस्य सम्भूयोत्थाने संघातविधातेन दण्डं प्रणयेच्छतमवयं सहस्रमदण्डयम् न प्रणयेत् ।।96॥ सा राजन्वती भूमिर्यस्यां ना सुरवृत्ती राजा 197॥ पर प्रणेया राजाऽपरिक्षितार्थमानप्राणहरोऽसुर वृत्तिः ।।98॥ परकोपप्रसादानुवृत्तिः पर प्रणेयः ।।99 ॥ तत्स्वामिच्छन्दोऽनुवर्तनं श्रेयो यन्न भवत्यत्यामहिताय 100 अन्वयार्थ :- (केवलाभ्यां बुद्धिपौरुषाभ्याम्) मात्र बुद्धि पुरुषार्थ द्वारा (महतो) महान (जनस्य) जनों को (सम्भूय) समूह को (उत्थाने) लेकर (संघातविघातेन) समुदाय के विधात द्वारा (न) नहीं (दण्डम्) दण्ड (प्रणयेत्) देवे (क्योंकि) (शतम्) सौ (अवध्यम्) दण्ड योग्य नहीं (सहस्रम्) हजार (अदण्डयम्) अदण्डनीय (न) नहीं (प्रणयेत्) दण्डित करे ।961 (सा) वह (भूमिः) पृथ्वी (राजन्वती) प्रशस्त (यस्याम्) जिसमें (असुरवृत्तिः) आसुरीवृत्ति वाला (राजा) राजा (न) नहीं है 197 ।। (परप्रणेया) दूसरों की प्रीति से चलने वाला (राजा) नृपति (अपरिक्षितार्थ) बिना विचारे (मानप्राण हरः) सम्मान व प्राणनाशक (असुरवृत्तिः) आसुरी भावना वाला है 198॥ (परकोपप्रसादानवत्तिः) बिना विचारे कोप व प्रसाद करने वाला (परप्रणेयः) परप्रणेय है ।99॥ (तत) वह (स्वामिच्छन्दानुवर्तनम्) आज्ञा (श्रेया) श्रेष्ठ है (यत्) जो (आयत्याम) भविष्य में (महिताय) स्वामी के लिए (न भवति) संकट के लिए नहीं होती 1/100 ॥ विशेषार्थ :- यदि सौ पुरुष एक साथ एकमत से ही एक ही प्रकार कथन करते हैं अथवा हजार व्यक्ति । एक रूप से एक ही प्रकार से एक ही प्रकार कथन भाषण करते हैं तो बुद्धिमान राजा को अपने ज्ञान-विज्ञान व Kaपौरुष के अहंकारवश उन श्रेष्ठ महान पुरुषों को अपराधी सिद्ध कर दण्डित नहीं करना चाहिए ।। क्योंकि एक ही ॥ 547

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