Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 576
________________ नीति वाक्यामृतम् नोद्यमेन बिना सिद्धिं कार्यं गच्छति किंचन । यथा चापं न गच्छन्ति उद्यमेन बिना शराः ॥॥ पुरुषार्थ का आश्रय लेकर जो कार्यारम्भ करता है उसको इष्ट व अनिष्ट में सन्देह रहता है । अभिप्राय यह है कि पुरुष उद्यमशील होकर व्यापारादि करना प्रारम्भ करता है परन्तु वह सोचता है इसमें मुझे लाभ होगा या नहीं? अथवा इसमें कहीं हानि तो नहीं होगी? इस प्रकार उसे सन्देह बना रहता है । कर्त्तव्य दृष्टि से विचार करे तो यही अभिप्राय सिद्ध होता है कि उद्योगशील की सफलता भाग्य पर निर्भर करती है । परन्तु भाग्य की अनुकूलता व प्रतिकूलता भी बिना पुरुषार्थ-उद्योग के ज्ञात नहीं होती । अतः विवेकशील को कर्तव्यनिष्ठ होना ही चाहिए ।।12।। वशिष्ठ ने भी यही अभिप्राय व्यक्त किया है : पौरुपमानित्य लोकस्य नूनमेकतमं भवेत् । धनं वा मरणं वाथ वशिष्ठस्य वचो यथा ।॥ जो मनुष्य सर्वथा भाग्य का आश्रय लेकर निरुद्यमी होकर बैठा रहता है उसका अनर्थ सुनिश्चित है ।।13 ।। नारद ने कहा है : प्रमाणीकृत्य यो दैवं नोधमं कुरुते नरः । स नूनं नाशमायाति नारदस्य वचो यथा ॥1॥ जिस प्रकार आयु कर्म और योग्य औचधि का संयोग जीवन रक्षा करता है, उसी प्रकार भाग्य और पुरुषार्थ दोनों का संयोग मनोवाञ्छित कार्य सिद्धि करता है । अभिप्राय यह है कि जिस तरह आयु शेष रहने पर ही औषधि कार्यकारी होती है अर्थात् योग्य दवा रोग नाश कर स्वास्थ्य लाभ प्रदान करती है उसी प्रकार भाग्य की अनुकुलता रहने पर ही पुरुषार्थ उद्योग कार्यकारी होता है । भाग्य की अनुकूलता से ही उद्योग-पुरुषार्थ सफल होता है अन्यथा नहीं । भारद्वाज ने भी यही कहा है - 114|| विनायुषं न जीवेत भेषजानां शतैरपि । न भेषजैविना रोगः कथञ्चिदपि न शाम्यति ।।। । धर्म का परिणाम एवं धार्मिक राजा :_ अनुष्ठीयमानः स्वफलमनुभावयन्न कश्चिद्धर्मोऽधर्ममनुबध्नाति In5॥ त्रिपुरूषमूर्तित्वान्न भूभुजः प्रत्यक्षं दैवमस्ति ।16 ।। प्रतिपन्न-प्रथमाश्रमः परे ब्रह्मणि निष्णातमतिरुपासित गुरुकुलः सम्यग्विद्यायामधीती कौमार वयाऽलंकुर्वन् क्षयपुत्रोभवति ब्रह्मा 117 ॥ संजात राज्य कुल लक्ष्मी दीक्षाभिषेकं स्वगुणैः प्रजास्वनु रागें जनयन्तं राजानं नारायणमाहुः ॥18॥ प्रवृद्ध प्रताप तृतीय लोचनानलः परमैश्वर्यमातिष्ठमानो राष्टंकण्टकान् द्विषदानवान् छेत्तुं यतते । विजिगीषु भूपतिर्भवति पिनाक पाणिः ।।१॥ अन्वयार्थ :- (अनुष्ठीयमानः) विधवत् किया (कश्चित्) कोई (धर्मः) धर्म (स्वफलमनुभावयन्) अपने.. 529

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