Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 583
________________ नीति वाक्यामृतम् बलवान के साथ सन्धि कर युद्ध करने को "द्वैधीभाव" भी कहते हैं 1149 | जब विजिगीषु अपने से बलवान शत्रु के साथ पहिले मित्रता स्थापित करता है और फिर कुछ समय बाद शत्रु के हीन शक्ति हो जाने पर पुन: उसी पर आक्रमण कर संग्राम करने को आह्वान करना "बुद्धि-आश्रित द्वैधीभाव" है, क्योंकि इस प्रकार करने से अवश्य विजय लाभ होता है 1150 | सन्धि विग्रह - आदि के विषय में विजिगीषु का कर्त्तव्य : हीथमान: पबन्धेन सन्धिमुपेयात् यदि नास्ति परेषां विपणितेऽर्थे मर्यादोल्लंघनम् | 151 ॥ अभ्युच्चीयमानः परं विगृह्णीयाद्यदि नास्त्यात्पबलेषुक्षोभः । 152 ॥ न मां परो हन्तुं नाहं परं हन्तुं शक्त इत्यासीत यद्यायत्यामस्ति कुशलम् 1153 ॥ गुणातिशययुक्तो यायाद्यदि न सन्ति राष्ट्रकण्टकामध्ये न भवति पश्चात्क्रोधः ।।54 ॥ स्वमण्डलमपरिलायतः परदेशाभियोगो विवसनस्य शिरोवेष्टनमिव 1155 ॥ वज्जुवलनमिव शक्तिहीनः संश्रयं कुर्याद्यदि न भवनि परेषामामिषम् ॥156॥ -- विशेषार्थं अन्वयार्थ सरल है और पहले आ चुका है । अतः विशेषार्थ इस प्रकार है कि विजयलाभ का इच्छुक अपने शत्रु को विशेष बलवान समझे तो उसे यथायोग्य धनादि देकर उसके साथ सन्धि कर ले । परन्तु इस मैत्री भाव प्रणबन्ध में दृढता होनी चाहिए । शत्रु भविष्य में पुनः आक्रमण नहीं करेगा इस प्रकार उसके साथ प्रतिज्ञा करानी चाहिए । यदि वह प्रतिज्ञाबद्ध हो तो सन्धि करे अन्यथा नहीं ॥51॥ शुक्र ने भी कहा है : हीयमानेन दातव्यो दण्डः शत्रोर्जिगीषुणा ॥ बलयुक्तेन यत्कार्यं तैः समं निधिनिनिश्वयो ॥1 ॥ यदि आक्रमण का इच्छुक सामने वाले शत्रु से कोष व सैन्यबल में विशेष शक्ति सम्पन्न है तो उसे शत्रु से संग्राम छेड़ना चाहिए । परन्तु सेना में क्षोभ न हो 1152 ॥ गुरु ने भी कहा है : यदि स्यादधिकः शत्रोर्विजिगीषु र्निजैर्वलैः । क्षोभेन रहितैः कार्यः शत्रुणा सह विग्रहः 111 ॥ यदि विजयलाभेच्छु शत्रु द्वारा भविष्यकालीन अपनी कुशलता निश्चित हो, यह विश्वास हो कि भविष्य में यह मुझे नष्ट नहीं करेगा और न मैं शत्रु को! तब उसके साथ विग्रह न करके सन्धि-मित्रता ही करना चाहिए 1153 | जैमिनि कहते हैं : न विग्रहं स्वयं कुर्यादुदासीने परे स्थिते बलाढ्येनापि यो न स्यादायत्यां चेष्टितं शुभम् ॥1॥ आक्रमण कर्ता यदि अपने कोष, सेना, प्रकृति बल से पूर्ण सम्पन्न है, एवं उसका राज्य निष्ककण्टक है, तथा प्रजा भी अनुकूल सुखी है, तो उसे शत्रु के साथ अवश्य युद्ध करना चाहिए । अर्थात् उसे इस प्रकार का ध्यान रखना चाहिए कि राज्य और प्रजा को कोई क्षति न हो 154 ॥ भागुरि ने भी कहा है :

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