Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 579
________________ नीति वाक्यामृतम् विशेषार्थ :- राजाओं का राजमण्डल होता | उसके अधिष्ठाता उदासीन मध्यम, विजिगीषु, अरि, मित्र, पार्ष्णिग्रह, आक्रन्द, आसार व अन्तर्द्धि है। ये यथायोग्य गुणसमूह और ऐश्वर्य के तारतम्य से युक्त होते हैं । सारांश में कहा जा सकता है कि विजिगीषु (विजय का इच्छुक) का कत्तव्य हैं कि वह इन सबके साथ स्नेह का बर्ताव कर अपने अनुकूल रखने का प्रयत्न करे ||201 जो राजा अपने देश में वर्तमान किसी अन्य राजा जो विजिगीषु हो, और उसके आगे-पीछे या पार्श्व ( बगल ) में स्थित हो, युद्ध करने में जो मध्यम हों, स्वयं उनसे बलवान, विजय करने में समर्थ हो तो भी किसी कारण से या किसी अपेक्षा वश उनकी उपेक्षा करता है, सामर्थ्य होने पर उनसे युद्ध कर विजय लाभ नहीं करता है उसे "उदासीन' कहते हैं |121| दो प्रतिपक्षियों में युद्ध होने पर दोनों ही सहयता चाहते हों, उस स्थिति में जो महीपति यह विचार कर कि "मैं जिसका सहाय करूँगा, दूसरा मेरा शत्रु हो जायेगा" इस अभिप्राय से किसी भी विजिगीषु के साथ नहीं मिलता वह मध्यस्थ रहता है उसे "मध्यस्थ" कहते हैं 1122 | जिसका राज्याभिषेक हो चुका हो, भाग्यशाली, खजाना, अमात्यादि प्रकृति से युक्त हो, राजनीतिज्ञ, सुभट हो, उसे "विजिगीषु" कहते हैं 1123॥ जो अपने विकटवर्ती कुटुम्बी जनों के सदा सतत दुष्टता करता है उसे " अरि" कहते हैं ॥24 ॥ पार्ष्णिग्राह, आसार व अन्तर्द्धि का लक्षण : मित्र लक्षणमुक्तमेव पुरस्तात् 1125 | यो विजिगीषी प्रस्थितेऽपि प्रतिष्ठमाने वा पश्चात् कोपं जनयति स पार्ष्णिग्राहः 1126 || पार्ष्णिग्राह्यद्य पश्चिमः स आक्रन्दः 1127 || पार्ष्णिग्राहामित्रमासार आक्रन्द मित्र च ॥28॥ अरि विजिगीषोर्मण्डलान्तर्विहितवृत्तिरुभयवेतनः पर्वताटवी कृताश्रयश्चान्तर्द्धि 1129 ॥ विशेषार्थ :- पिछले मित्र समुद्देश में मित्र का लक्षण कहा है वही है 1125 ॥ विजय के इच्छुक राजा के साथ प्रथम संग्राम भूमि की ओर प्रस्थान करे और पुनः उसके विरोध में खड़ा होकर उसके देश राज्य की लूटपाट कर नष्ट करे उसे " पार्ष्णिग्रह" कहते हैं 126 ॥ जो राजा पार्ष्णिग्राह से सर्वथा विपरीत चलता है अर्थात् युद्ध में जिसके साथ गया है उसे विजय में हर प्रकार सहायता करता है उसे " आक्रन्द" कहते हैं 1127 || जो पार्ष्णिग्राह से मित्रता न रखता है अर्थात् विरोधी हो, और आक्रन्द के साथ मैत्री रखता है उसे " आसार " कहते हैं । 128 | शत्रुराजा और विजिगीषु राजा इन दोनों के देश में जो आजीविका रखता है अर्थात् दोनों ओर से वेतन पाने वाला है उसे 'अन्तर्द्धि' कहते हैं ।। यह पर्वत पर या अटवी में रहने वाला होता है ||29 ॥ युद्ध करने योग्य शत्रु उसके प्रति राजकर्त्तव्य, शत्रुओं के भेद : अराजबीजी लुब्धः क्षुद्रो विरक्त प्रकृतिरन्यायपरो व्यसनी विप्रतिपन्न मित्रामात्य सामन्त सेनापतिः शत्रुरभियोक्तव्यः ॥ 130 || अनाश्रयोदुर्बलाश्रयो वा शत्रुरुच्छेदनीयः । 131 || विपर्ययोनिष्पीडनीयः कर्षयेद्वा 1132 | समाभिजनः सहज शत्रुः । 133 || विरोधो विरोधयिता वा कृत्रिमः शत्रुः ||34 | अन्वयार्थ : (अराजबीजी) जार से उत्पन्न (लुब्ध:) लोभी, (क्षुद्रः) नीच (विरक्तप्रकृतिः) प्रजादि विरुद्ध 532

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