Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
नीति वाक्यामृतम्
( अन्यायपरः ) अन्यायी ( व्यसनी ) सप्त व्यसन सेवी (विप्रतिपन्न) विवाद ग्रस्त विपरीत (मित्र : ) सुहृद ( आमात्यः ) मंत्री, सामन्त सेनापति हों उस (शत्रुः) रिपु (राजा) नृप पर (अभियोक्तव्य:) आक्रमण करना चाहिए 1130 ॥ (अनाश्रयः ) आश्रयरिहत (वा) अथवा (दुर्बलाश्रयः) कमजोर सहाय वाले (शत्रुः ) रिपु को (उच्छेदनीयः) नष्ट करना चाहिए ||31 ॥ (विपर्ययो) विपरीत (निष्पीडनीयः कर्षयेद्वा) उसका धन छीन ले या अति शक्तिहीन कर दे 1132 || ( समामिजनः ) कुटुम्बी (सहजशत्रुः ) स्वाभाविक शत्रु [ अस्ति ] है 1133 ॥ (विरोध) पूर्व विरोध (वा) अथवा ( विरोधयिता) विरोध कराने वाला (कृत्रिम) बनाये (शत्रुः) रिपु हैं 134 ॥
विशेषार्थ :- जो राजा व्यभिचारिणी से उत्पन्न हो, अथवा जिसके देश, राज का पता न हो, लोभी, दुष्ट हृदय सम्पन्न, प्रजा जिससे विरुद्ध है, अन्यायी, कुमार्गगामी, जुआ, मद्यपानादि व्यसनासक्त हो, मित्र- अमात्य - सामन्तसेनापति जिसके विरोधी हों इस प्रकार के शत्रु राजा पर विजयाभिलाषी को अविलम्ब आक्रमण कर विजय लाभ करना चाहिए | 30 | शुक्र विद्वान ने भी कहा है :
विरक्त प्रकृति वैरी व्यसनी लोभ संयुतः । क्षुद्रोऽमात्यादिभिर्मुक्तः स गम्यो विजिगीषुणा ॥ 11 ॥
विजयाभिलाषी राजा को आश्रयहीन अथवा निर्बल आश्रयी वाले शत्रु को युद्ध कर परास्त कर देना चाहिए 131 || यही बात शुक्र ने भी कही है :
अनाश्रयो भवेच्छत्रुर्यो वा स्याद्दुर्बलाश्रयः । तेनैव सहितः सोऽत्र निहतव्यो जिगीषुणा ।।1 ॥
यदि कारणवश शत्रु से सन्धि (मित्रता) हो जावे, तो भी विजयेच्छु भविष्य के लिए अपना मार्ग निष्कण्टक करने के लिए उसका समस्त धन छीन लेना चाहिए अथवा इस प्रकार शक्ति हीन कर दे कि पुनः सिर उठाने का
न
साहस
करे 1132 ॥
अपने ही कुल का पुरुष, राजा का स्वाभाविक शत्रु है क्योंकि वह ईर्ष्यावश उसका उत्थान सहन न कर सतत् पतन का प्रयत्न करता है । विडाल व चूहे समान यह सहज विरोध होता है 1133 ॥ नारद ने भी कहा है :
वाञ्छक : 1
गोत्रजाः शत्रुः सदा.... तत्पद रोगस्येव न तद्विद्धं कदाचित्कारयेत्सुधीः 11 ॥
विजय के अभिलाषी के साथ जिसने पूर्व में विरोध किया हो अथवा जो स्वयं आकर विरोध करता है ये दोनों ही कृत्रिम शत्रु हैं | 134 || गर्ग ने कहा हैं :
यदिहीन बलः शत्रुः कृत्रिमः संप्रजायते 1 तदा दण्डोऽधिको वा स्याद्देयो दण्डः स्वशक्तितः ॥॥1 ॥
533