Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम्
अपना ही नाश करता है । सारांश यह है कि जिस प्रकार अंगारों को हाथ से छूने वाला स्वयं जलता है, अपनी ही क्षति करता है, उसी प्रकार पूज्य पुरुषों के साथ या सज्जनों के साथ जो अन्याय करता है, वह अपना ही अहित,
दि करता है । उपकारी का उपकार करना चाहिए । यदि उपकार न हो सके तो उन्हें क्षति पहुँचाने का उपक्रम तो कभी भी नहीं करना चाहिए 167 || भागरि विद्वान ने भी कहा है
साधूनां विनयाढ्यानां विरु द्धानि करोति यः ।
स करोति न सन्देहः स्वहस्तेनाग्निकर्षणम् ॥1॥ माता-पिता यदि नीच कुल के हैं तो उनके पुत्र भी नीच-विकार युक्त नीचकुल के ही कहलाते हैं । इसी प्रकार जो अपने उच्च कुल को भी विधवादि विवाह कर कलंकित कर लेते हैं वे भी उच्च कुलीन भी नीच कहे जाते हैं । इसी प्रकार सन्तान के जघन्य आचरणों से माता-पिता भी अकुलीनता जानी जाती है ।।68 ।। उत्तम पुत्र की उत्पत्ति का उपाय :
कुल विशुद्ध रूभयतः प्रीतिर्मनः प्रसादोऽनुपहत काल समयश्च श्री सरस्वत्यावाहन मंत्र पूत परमानो पयोगश्च गर्भाधाने पुरुषोत्तममवतारयति ।।6।।
अन्वयार्थ :- (कुलविशुद्धः) जाति वंश शुद्धि (उभयतः) दोनों दम्पत्ति में (प्रीतिः) स्नेह (मनः प्रसादः) चित्त की निर्मलता (अनुपहतकाल) समय की मर्यादा (च) और (समयः) यौवनकाल (श्री सरस्वत्याः) सरस्वती का (आवाहन) आवाहन, (मंत्रपूत) मंत्रशुद्धि (परमानः) उत्कृष्ट अन्न (च) और (गर्भाधाने) गर्भान्वयी क्रिया (पुरुषोत्तमम्) उत्तम पुरुष को (अवतारयति) अवतर करती है 169 ॥
विशेषार्थ :- जो दम्पत्ति उत्तम, श्रेष्ठत पुत्रोत्पन के इच्छुक हैं उन्हें निम्न प्रकार कारण सामग्री का समन्वित करना चाहिए :
(1) कुलविशुद्धि - दम्पत्ति के माता-पिता की कुलपरम्परा विशुद्ध, निष्कलंक होनी चाहिए । उन्हें पिण्डशुद्धि (सजातित्व) का रक्षण करना चाहिए । माता पक्ष जाति और पिता की परम्परा कुल कहलाती है । दोनों की पवित्रता सज्जाति कही है । भगवज्जिन सेनाचार्य ने भी महापुराण में कहा है :
पितुरन्वयशुद्धि या तत् कुलं परिभाष्यते । मातुरन्वय शुद्धिस्तु जाति रित्यभिलप्यते ।।1॥ (संस्कार जन्मन) विशुद्धिरुभयास्य सज्जातिरनुवर्णिता । यत्प्राप्तौ सुलभा बोधिरयत्नोपनते गुणैः ।।2॥ संस्कार जन्ममा चान्या सजातिरनुकीय॑ते, यामासाद्यद्विजन्मत्वं भव्यात्मा समुपाश्नुते ।।3॥
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