Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम्
N से अधिक अन्य कोई दान नहीं है ।17 ॥ क्षुधा, तृषा, शत्रु आदि से भयभीत प्राणी का रक्षण करना सर्वोत्तम दान है 1117 ॥ जैमिनि विद्वान ने कहा है :
भयभीतेषु यद्दानं तहानं परमं मतम् । रक्षात्मकं किमन्यैश्च दानैर्गजरथादिभिः ।।1।।
अर्थात् गज, अश्व रथादि की अपेक्षा अभय दान ही उत्तम दान है ।।
धन नहीं होने पर उसके प्राप्त करने की चिन्ता मनुष्यों द्वारा अभिलषित फल-धनादि देने में समर्थ नहीं होती, किन्तु उत्साहः उद्योग ही इच्छित व प्रभूत धनार्जन में कारण होता है ।।18 ॥ शुक्र विद्वान ने भी यही आशय प्रकट किया है:
उत्साहिनं सिंह मुपैति लक्ष्मी दैवेन देयमिति का पुरुषाषदन्ति । दैवं निहत्य कुरु पौरुषमात्मशक्त्या यत्ने कृते यदि न सिद्ध्यति कोऽत्र दोषः ।।1।।
अर्थात् उत्साही पुरूष सिंहसम लक्ष्मी कमाता हैं। 'भाग्य से प्राप्त होगी' इस प्रकार कायर पुरूष कहते हैं। अतः भाग्य की उपेक्षा कर अपनी शक्ति अनुसार पुरूषार्थ करो। यत्न करने पर भी यदि सिद्धि न हो तो इसमें क्या अपराध? कुछ नहीं ॥१॥
यदि कोई स्वामी किसी एक सेवक को छोड़कर शेष सभी को कल्पवृक्ष के समान समस्त इच्छित पदार्थों को प्रदान करता है तो इसमें उस सेवक के ही पापकर्म का उदय समझना चाहिए। अथवा वह अपराधी है जिससे कि स्वामी रूष्ट है।19॥ भागुरि ने भी यही कहा है
यत्प्रयच्छति न स्वामी सेवितोऽप्यल्पकं फलम् ।
कल्पवृक्षोपमऽन्येषां तत्फलं पूर्वकर्मणः॥1॥ जो पुरुष अपने मूलधन-पैतृक धन को अथवा स्व अर्जित सम्पत्ति को व्यापारादि द्वारा नहीं बढ़ाता अपितु व्यय-खर्च ही करता रहता है. वह निश्चित दःखी होता है ।। अर्थात भविष्य में दारिद्रय का भयंकर कष्ट उठाना पड़ता है । इसलिए विवेकी पुरुष को निरन्तर अपनी आय के अन्तर्गत ही व्यय-खर्च करना चाहिए ।। गं कहा है :
न वृद्धिं यो नयेद्वित्तं पितृ पैतामहं कुधीः । केवलं भक्षयत्येव स सदा दुःखितो भवेत् ।।1।
अर्थ विशेष नहीं है ।2018
) कुसंग का त्याग, क्षणिकचित्त वाले का प्रेम, उतावले का पराक्रम व शत्रु निग्रह का उपाय :
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