Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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-नीति वाक्यामृतम्
अभिप्राय यह है कि पैसे के बल पर दूसरों को आधीन करना भाग्यवानी नहीं, अपितु अपने दिव्याचरण.. प्रेम से वश करना सौभाग्यपना है ।1591
जिस सभा में विद्वानों की उपस्थिति न हो वह सभा नहीं अपितु निर्जन वन प्रदेश है । कारण कि विद्वानोंज्ञानियों के बिना धर्म-अधर्म, कर्तव्य-अकर्तव्यादि का उपदेश कौन करेगा । विवेक बोध ही जहाँ न हो उस सभा का प्रयोजन ही क्या है ? कुछ भी नहीं ।
___ वह व्यक्ति शत्रु सदृश है जो किसी के द्वारा प्रेम-स्नेह किये जाने पर भी उसके प्रति प्रेम का व्यवहार नहीं करता अपितु रुष्टता दिखलाता है । राजपुत्र के संग्रहीत श्लोक का भी यही अभिप्राय है :
बल्लभस्यच योभूयोबल्लभः स्याद्विशेषतः । स वल्लभपरिज्ञेयो योऽन्यो वैरो स उच्यते ॥
प्रिय के साथ प्रेम का व्यवहार करे वही स्नेही मित्र है अन्य शत्रु है 110 161 ॥ निंद्य स्वामी, लेख का स्वरूप व उसका अप्रामाण्य, तत्काल फलदायी पाप :
स किं प्रभुर्यो न सहते परिजन सम्बाधम् ।।2।। न लेखाद्वचनं प्रमाणम् ।।63 ॥ अनभिज्ञाते लेखेऽपि 'नास्ति सम्प्रत्ययः ।।64॥ त्रीणि पातकानि सद्यः फलन्ति स्वामिद्रोहः स्त्रीबधो बालवधश्चेति ॥16॥
अन्वयार्थ :- (सः) वह (किम्) क्या (प्रभुः) स्वामी (यः) जो (परिजनसम्बाधम्) परिजनों की बाधा को (न) नहीं (सहते) सहन करता है ।।62 ॥ (लेखात्) लेख से (वचनम्) वचन (प्रमाणम्) प्रमाणित (न) नहीं हैं 163 ॥ (अनभिज्ञाते) अज्ञात (लेखे) लेख होने (अपि) पर भी (सम्प्रत्यय) सच्ची प्रमाणता (न) नहीं (अस्ति) होती है ।64 ॥ (त्रीणि) तीन (पातकानि) पाप (सद्यः) शीघ्र (फलन्ति) फल देते हैं (स्वामीद्रोहः) मालिकों को धोखा देना (स्त्रीबधः) नारी की मृत्यु (च) और (बालबधः) बच्चे की हत्या ।।65 ॥
विशेषार्थ :- जो स्वामी अपने सेवकों की अवस्था का विचार नहीं करता, अर्थात् उन्हें यथा योग्य समय पर वेतनादि नहीं देता अथवा अन्य कार्यों में सहायक नहीं होता । उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति में हिचकिचाता है वह निंद्य है। 62 ।। गौतम ने भी कहा है :
भृत्यवर्गार्थजे जाते योऽन्यथा कुरुते प्रभुः स स्वामी न परिज्ञेय उदासीनः स उच्यते ॥1॥
जो भृत्यवर्ग के रक्षण-भरण-पोषण में असमर्थ पुरुष है यह स्वामी नहीं - अपितु सन्यासी समझना चाहिए In ॥
लेख एवं वचन इन दोनों में लेख को विशेष प्रतिष्ठित व अत्यधिक प्रमाणित माना जाता है । और वचनों को चाहे वे वहस्पति के ही क्यों न हों प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं होती ।। राजपुत्र का भी यही अभिप्राय है ।