Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम्
अर्थात् जो पर दोयों पर दृष्टि नही रखता वह शरीर में स्थित भी मुक्त है अर्थात् नियम से मुक्ति मार्ग पर M आरुढ है I ||
जो पुरुष सर्व प्रकार की परस्त्रियों को कुदृष्टि से नहीं देखते वे भाग्यशाली हैं । अर्थात् परनारी अवलोकन में अन्धे के समान आचरण करने वाले शीलवान धन्य पुरुष हैं ।। पनी सिवाय अन्य सभी स्त्रियों को माता, बहिन । और पुत्री समान समझने वाले महापुरुष होते हैं 1251। हारीत का भी यही अभिप्राय है :
अन्यदेहान्तरे धर्मों यैः कृतश्च सुपुष्कलः । इह जन्मनितेऽन्यस्य न वीक्षन्ते नितम्बिनीम् ॥
अर्थात् जो सन्त पुरुष परनारी को कुदृष्टि से नहीं देखता है वह प्रभूत पुण्यसंचित कर उभयलोक में सुखानुभव करता है 11 1251
अपने द्वार पर यदि शत्रु भी आ जाय तो उसका भी सम्मान करना चाहिए । यदि पुण्य पुरुष, पूज्य गुरुजन आयें तो फिर कहना ही क्या है ? ||26 ॥ भागुरि ने भी कहा है :
अनादरो न कर्तव्यः शत्रोरपि विवेकिना । स्वगृहे आगतस्थात्र किं पुनर्महतोऽपि च ॥1॥
अर्थात् महापुरुषों का अवश्य ही प्रसन्नचित्त से सम्मान करना चाहिए 126 ।।
ज्ञानी-विवेकी पुरुष को अपने घर में निक्षित गुप्तधन की भाँति अपने हृदयस्थ धर्म का भी संरक्षण करना चाहिए। अर्थात् जिस प्रकार बहुमूल्य धन का किसी के सामने प्रकट नहीं किया जाता उसी प्रकार अपने अमूल्य धर्मरत्न का भी प्रकाशन नहीं करना चाहिए ||27 ॥ व्यास ने भी कहा है :
स्वकीयं कीर्तयेद्धर्म यो जनाग्रे स मन्दधीः ।। क्षयं गतः सयायाति पापस्य कथितस्य च ॥1॥
उपयुक्त ही अर्थ है ।।
मनुष्य काम क्रोध, प्रमाद अज्ञानादि दोषों से युक्त है । इनके निमित्त से उत्पन्न दोषों की निवृत्ति के तीन उपाय हैं - 1. अपने दोषों को अपने गुरुजनों के समक्ष सरल हृदय से यथाजात निरूपण करना-कहना । 2. किये हुए दोषों के प्रति पश्चाताप करना, ग्लानि करना और 3. प्रायश्चित्त लेना अर्थात् गुरुजनों को निवेदन कर उनसे दण्ड ग्रहण करना। 128॥ भारद्वाज ने कहा है :
मद प्रमादज तापं यथास्यात्तनिवेदयेत् ।
गुरुभ्यो युक्तिमाप्नोतिमनस्तापो न भारत ।।1॥ । धनार्जन के लिए कष्ट की सार्थकता, नीच पुरुषों का स्वरूप, वन्यचारित्र, पीडाजनक कार्य व पातकी
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