Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीतिवाक्यामृतम्
( पश्यति) देखता है । 135 ॥ (गृहदासी अभिगमः) दासी के पास लगा (गृहम् ) घर को (गृहणीम् ) पत्नी को (च) और (गृहपतिम् ) गृहस्वामी ( प्रत्यवसादयति ) विपरीत हो पीड़ा देता है 1136 | ( वेश्यासंग्रह :) वेश्यासंग्रह ( देवं ) देवम् (द्विजम्) ब्राह्मण, (गृहणीम् ) पत्नी (बन्धूनाम्) भाई-बन्धुओं के (उच्चाटनमन्त्रः) उच्चाटन का मंत्र है 1137 ॥ (अहो ) आश्चर्य: (लोकस्य ) संसार का (पापम्) पाप ! (यत्) जो कि (निजा) अपनी (स्त्री) पत्नी ( रतिः) सुन्दरी (अपि) भी (निम्बसमा ) नीम के समान (भवति) होती है (परगृहीता) परस्त्री (शुनी) कुत्ती (अपि) भी ( रम्भा समा) रति समान भवति] होती है। 38 ॥
विशेषार्थ प्रयोजन की सिद्धि के लिए शकुनि निमित्त में शुभ-अशुभ शब्दों को सुनाता है । शुभ--सूचक हो तो कार्य किया जाता है, अन्यथा त्याग दिया जाता है, उसी प्रकार बुद्धिवान, ज्ञानी मनुष्य स्वार्थ सिद्धि के लिए नीच - तुच्छ पुरुष के भी निकट पहुँच कर वचन श्रवण करता है करना ही चाहिए । यदि अनुकूल होने पर उन्हें मानना चाहिए और प्रतिकूल हो तो छोड़ देना चाहिए ॥34॥ स्वार्थी व्यक्ति जिससे अपना स्वार्थ सिद्धि समझता है, उसके दोषों को देखकर भी अनदेखे कर देता है | 135 | गुरु ने कहा है :
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अपि नीचोऽपि गन्तव्यः कार्ये महति संस्थिते । यदि स्यात्तद्वचोभद्रं तत्कार्यमथवात्यजेत् ॥1॥
34वीं नीति समान अर्थ है ।
जो मूर्ख गृहदासी से प्रेमासक्त हो जाता है वह अपनी स्वयं की पत्नी, घर, व घर के स्वामी माता-पिता का भी त्याग कर देता है । अर्थात् बेघर - बार हो जाता है 1136 ॥ वेश्या संग्रह महापाप है । इसके करने वाले पातकी को देव, ब्राह्मण, स्त्री, बन्धुजन विमुख हो छोड़ देते हैं । अतः सर्व मित्र परिवार से जुदाई कराने में यह एक सफल उच्चाटन मन्त्र है । अतएव उक्त दोषों से रक्षण करने के लिए वेश्या संग्रह का त्याग करना चाहिए 1137 || गुरु विद्वान ने भी कहा है:
न वेश्या चिन्तयेत्पुंसां किमप्यस्ति च मन्दिरे । स्वकार्यमेव कुर्वाणा नरः सोऽपिच तद्रसात् ॥1॥
कृत्वा शील परित्यागं तस्या वाञ्छां प्रपूरयेत् । ततश्च मुच्यते सर्वैर्भार्या बान्धवपूर्वजैः 112 ॥
अर्थ :- सत्पुरुष को वेश्या का चिन्तन भी नहीं करना चाहिए । वेश्या के घर में यदि स्वकार्यवशात् गया भी तो निश्चित अपने शील रतन को गंवा देगा और उसकी इच्छापूर्ति में लग जायेगा । उसके भोग का रस लोलुपी बना देगा - चारुदत्त के समान और वह सरलता से घर-बार, पत्नि, परिवार से त्याज्य हो जायेगा । अतः वेश्या के आने जाने का सर्वथा त्याग करना ही श्रेयस्कर है 1137 ॥
नीतिशास्त्रवेत्ता कहते हैं कि, लोगों का पाप ज्ञात कर महान् आश्चर्य होता है । दुर्बुद्धि जन अपनी स्वधर्मिणी पनि जो रति समान अति रूपवती है नीम के समान कटु समझता है और परस्त्री कुरुप है तो भी उसे देवाङ्गना
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