Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीतिवाक्यामृतम्
परार्थं परनारीं च रक्षार्थे योऽत्रगृह णाति । विप्लवं याति चेद्वित्तं तत्फलं वैरसंभवम् ॥॥1॥
कहावत है पराई वस्तु और परनारी की रक्षा मित्रता अपेक्षा वैर का कारण है ।।
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जो सेवक स्वामी के प्रति अनुरक्त है श्रद्धालु है और सन्तुष्ट रहता है, उसे स्वामी को अपनी दरिद्रावस्था होने पर भी नहीं छोड़ना चाहिए ||39 || गुरु विद्वान ने भी लिखा है :
अभियुक्तजनं यच्च न त्याज्यं तद्विवेकिना । पोषणीयं प्रयत्नेन यदि तस्य शुभार्थता ॥॥1 ॥
विवेकी स्वामी को अपने प्रति अनुरक्त व सन्तुष्ट भृत्य को प्रयत्नपूर्वक पोषण करना चाहिए ।।
अहंकारी कई अन्य सेवकों का उत्कर्ष सहन नहीं करता । उन्हें सताता है । फलतः वे सेबक मालिक को छोड़ देते हैं। इस प्रकार वह घमंडी सेवक सबको भगाकर राजा को अकेला ही कर देता है। अभिप्राय यह है कि अहंकारी सेवक को कभी भी नहीं रखना चाहिए | 140 || राजपुत्र ने भी कहा है
प्रसादाढ्यो भवेद् भृत्यः स्वामिनो यस्य दुष्टधीः । स त्यज्यतेऽन्य भृत्यैश्च शुष्को वृक्षोंऽडजैर्यथा ॥
जिसके दुष्टबुद्धि सेवक हो तो अन्य सेवक उसी प्रकार छोड़ देते हैं जैसे शुष्क वृक्ष को पक्षी छोड़ देते हैं ।।
जिस प्रकार का अपराध हो उसी प्रकार का दण्ड होना अनिवार्य है। अपना पुत्र भी क्यों न हों । पुत्र को यथायोग्य सजा देने वाला प्रजा को क्यों नहीं योग्य न्याय संगत दण्डविधान करेगा ? अवश्य ही करेगा । न्यायसंगत ही है ||41 शुक्र ने कहा है :
अपराधानुरूपोऽत्र दण्डः कार्यो महीभुजा । पुत्रस्यापि किमन्येषां ये स्युः पाप परायणाः ।।1 ॥
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राजा अपने देशानुसार प्रजा से कर वसूल करे । जहाँ जब जिस प्रकार वर्षादि हो और फसल हो तदनुसार ही टैक्स लेना न्याय संगत हैं । अन्यथा फसल न होने पर प्रजा अधिक टैक्स (कर) से पीडित होकर राज विरुद्ध हो राजा के साथ विद्रोह करेगी । अतः राज्य में अमन-चैन बनाये रखने को उचित कर लेना राजा का परम कर्त्तव्य है 1142 |
वक्ता के वचन, वय, वेष-भूषा, त्याग, कार्यारम्भ, सुख, अधम पुरुष :
प्रतिपाद्यानुरूपं वचनमुदाहर्तव्यम् ||43॥ आयानुरूघो व्ययः कार्यः । 144 | ऐश्वर्यानुरूप विलासो विधातव्यः ।145 ॥ धनश्श्रद्धानरूपस्त्यागोऽनुसर्तव्यः 1146 || सहायानुरूपं कर्म आरब्धव्यम् ||47 ॥ स पुमान् सुखी यस्यास्ति सन्तोषः ||48 ॥ रजस्वलाभिगाभी चाण्डालादपि अधमः ||49 ॥
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