Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम्
विशेषता :- जो पुरुष वृहस्पति के समान भी विद्वत्ता में प्रसिद्ध है वह भी अति लोभ, प्रमाद-आलस्य व विश्वास के द्वारा बन्धन को प्राप्त हो जाता है अथवा वंचित हो जाता है ।। कहावत है "अति सर्वत्र व कार्य व स्वभाव की सीमा रहने पर उसकी शोभा होती है । अन्यथा विपरीतता ही प्राप्त होती है । | अपने से बलवान के साथ विद्रोह होने पर उसे या तो अन्यत्र चला जाना श्रेयस्कर है अथवा उससे सन्धि कर लेना उपयुक्त है, इसके अतिरिक्त रक्षा का अन्य कोई उपाय नहीं है । ॥ शुक्र विद्वान ने भी कहा है
वलवान् स्याद्यदा शंसस्तदा देशं परित्यजेत् । तेनैव सह सन्धिं वा कुर्यान्न स्थीयतेऽन्यथा ॥1॥
वही अर्थ है ।
जो व्यक्ति पापोदय से समाज व राष्ट्र द्वारा प्रतिष्ठा नहीं कर समापने वंश का अभिमान लिए बैठा है, उस अहंकारी को संसार में कौन लघु नहीं मानेगा ? सभी तुच्छ समझते हैं 1 AM
विदेश जाने से दूषित व्यक्ति का स्वयं की विद्वता आदि के परिचय कराने का पुरुषार्थ (वक्तृत्वकला आदि) व्यर्थ हैं, क्योंकि जिसके द्वारा उसका स्वरूप नहीं ज्ञात है वह महान को भी लघु समझ लेता है । अत्रि का भी यही आशय है:
महानपि विदेशस्थः स परैः परिभूयते । अज्ञायमानै स्तद्देशमाहात्म्यं तस्य पूर्वकम् ॥
वही अर्थ है 13॥
संसारी प्राणी विषयासक्त रहने से प्रायः व्याधि पीड़ित होने पर ही भगवान का स्मरण करते हैं क्योंकि मृत्यु का । भय बुद्धि में आता है । उससे बचने के उद्देश्य से धर्म में प्रीति करते हैं, नौरोगी अवस्था में नहीं । कहा भी है -
"सुख के माथे सिल परो जो प्रभु नाम भुलाय । बलिहारी वा दुख की जो पल पल नाम रटाय ।।
शौनिक ने भी लिखा है :
व्याधिग्रस्तस्य बुद्धिः स्याद्धर्मस्योपरि सर्वतः । मयेन धर्मराजस्य न स्वभावात् कथंचन ॥
अर्थ वही है 15॥
जो प्राणी अन्य की प्रेरणा के बिना ही धर्म कार्य करने का प्रयत्न करता है । वह धर्मात्मा यथार्थ में निरोगी समझा जाता है । धर्म विमुख-पापी स्वस्थ होने पर भी बीमार माना जाता है 16 ॥ हारीत ने भी कहा है :
नीरोगः स परिज्ञेयो यः स्वयं धर्मवाञ्छकः । व्याधिग्रस्तोऽपि पापात्मा नीरोगोऽपि स रोगवान् ॥
वही अर्थ है ।।
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