Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
नीति वाक्यामृतम् ।
सेनादि एवं कोष की वृद्धि करने वाले साधनों को प्राप्त कर कुटुम्बीजन विकृत हो जाते हैं और वे उसी के घातक भी बन जाते हैं । अतः राजा का कर्तव्य है कि वह अपने सजातीय पारिवारिकजनों को आवश्यकता से अधिक धन माल व सम्मान नहीं देना चाहिए । अन्यथा उसका परिणाम भयकर होता है । वे उसी के घातक बन जाते हैं । लोभ-लालचवर्द्धक साधन उसे देना योग्य नहीं 169॥ गुरु ने भी यही कहा है
वृत्तिः कार्या न कुल्याणं यथा सैन्यं विवर्धते । सन्यवृश्या तु ते मात स्वामिनं राज्यलोभतः ॥
शरीर सौन्दर्य के विषय में विचार करने से प्रतीत होता है कि शरीर में कृत्रिम साज-भंगार, सज-धज का सौन्दर्य होता है न कि स्वाभाविक । कारण कि युवावस्था में उत्तम वस्त्रालंकारों से स्वयं को विभूषित करता है तो सुन्दर प्रतीत होता है । 160 ।।
राजा का कर्तव्य है कि वह हर समय विवेक से कार्य करे । जो पुरुष अपने प्रति श्रद्धालु हैं, भक्त हैं, अविरुद्ध हैं और नम्र, आज्ञाकारी, विश्वासपात्र हैं उन सजातीय, कौटुम्बी, पुत्रादि का संरक्षण करे, उन्हें योग्य पदों पर नियुक्त करे। और सर्व प्रकार सहयोग प्रदान करे 1 161-62 ॥ नारद एवं वल्लभदेव भी कहते हैं :
वर्धनीयोऽपिदायादः पुत्रो वा भक्तिभाग्यदि । न विकारं करोति स्म ज्ञात्वा साधुस्ततः परम् ।
नारदः ।। स्थानेष्वेव नियोज्यन्ते भृत्या आभरणानि च । न हि चूडामणिः पादे प्रभवामीति वध्यते ।।
वल्लभदेवः ।। अर्थ :- भक्ति, श्रद्धावान यदि हैं तो उन्हें उचित संवर्द्धन करे । ये मेरे विरोधी नहीं होंगे ऐसा प्रथम ज्ञात कर उनका पोषण करना चाहिए ।
सेवक और आभरणों को उचित स्थान-पद और अंगों में धारण करना चाहिए । अधिक प्रभा होगी ऐसा समझ कोई शिर की चूडामणि को पैरों में नहीं पहनता । सारांश यह है कि पुरुष व आभरण उचित और सीमित ही शोभित होते हैं 12 ॥ आज्ञापालन, विरोधियों का वशीकरण, कृतज्ञ के साथ कृतघ्नता का दुष्फल, अकुलीन माता-पिता का सन्तान पर कुप्रभाव :
भर्तुरादेशं न क विकल्पयेत् ।।63 ॥ अन्यत्र प्राण बाधा बहुजन विरोध पातकेभ्यः ।।64 ॥ बलवत्पक्ष परिग्रहेषु दायिष्याप्त पुरुष पुरः सरो विश्वासो वशीकरणं गूढपुरुषनिक्षेपः प्रणिधिर्वा 1165 ॥ दुर्बोधे सुते दायादे | वा सम्यग्युक्तिभिर्दुरभिनिवेशमवतारयेत् ।166॥ साधुषूपचर्यमाणेषु विकृति भजन
स्वहस्तागाराकर्षणमिव 167॥ क्षेत्रबीजयोर्वकृत्यमपत्यानि विकारयति ॥18॥
443