Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम्
अन्वयार्थ :- (आत्मसुखम् ) अपने सुख को (अनवरोधेन) विघ्न न करता (कार्याय) कर्त्तव्य पालन को (नक्तम्) रात्रि (च) और (अहः) दिन का (विभजेत् ) भाग करे | 168 | ( कालः) समय (अनियमेन ) नियमित बिना ( कार्यानुष्ठानम्) कार्य करना (हि) निश्चय से ( मरणसमम् ) मरण के समान [ अस्ति ] है 1169 ॥ (आत्यन्तिकेकार्ये) अत्यावश्यक कार्य में ( अवसरः ) समय की प्रतीक्षा (न) नहीं (अस्ति ) है 100 ॥ ( अवश्यम्) अवश्य ( कर्त्तव्ये) करने योग्य कार्य में (कालम् ) समय (न) नहीं ( यापयेत् ) व्यतीत करे | 171 ||
विशेषार्थ :प्रत्येक व्यक्ति अपनी सुख सुविधा में विघ्न नहीं डालते हुए सतत् कर्त्तव्य पालन करता रहे। हाँ रात्रि और दिन में कौन-कौन कार्य करने योग्य है इनका विभाजन अवश्य कर ले | 168 | प्रत्येक कार्य समयानुसार होना चाहिए । काल टालकर अर्थात् उचित समय का उलंघनकर किया कार्य मरण के समान है अर्थात् व्यर्थ होता है। समय का अतिक्रान्त करने पर किया कार्य निष्फल हो जाता है । वादीभसिंह ने भी कहा है :
न ह्यकालकृता वाञ्छा संपुष्णाति समीहितम् । किं पुष्पावचयः शक्यः फलकाले समागते ॥॥1 ॥
क्षय चू.
अर्थ जिस प्रकार फल लगने पर दाडिम आदि के वृक्षों से पुष्पों का चयन करने की अभिलाषा व्यर्थ होती है उसी प्रकार समय चूक जाने पर कार्य करने से सफलता मिलना असंभव है 1169 ||
नीतिकुशल मानव को अत्यावश्यक कार्यों के सम्पादन में विलम्ब नहीं करना चाहिए । शाश्वत कल्याणकारी कार्यों के लिए कहा है "शुभस्यशीघ्रम् " अच्छे पुण्यवर्द्धक कार्यों को अतिशीघ्र कर लेना चाहिए 1170 | अवश्य ही करने योग्य कार्यों के विषय में अधिक उहापोह करना उचित नहीं है । जिन कार्यों से नीतिलाभ, अर्थप्राप्ति व धर्मलाभ होता हो उन कार्यों को यथाविधि अविलम्ब कर लेने से ही इष्ट प्रयोजन सिद्धि होती है अन्यथा इष्टसिद्धि संभव नहीं हो सकती । अतः धर्मादि साधक कार्यों को अतिशीघ्र करना चाहिए 171 ॥
आत्मरक्षा, राजकर्त्तव्य, राजसभा में प्रवेश के अयोग्य, विनय के लक्षण :
आत्मरक्षायां कदाचिदपि न प्रमाद्येत 1172 ॥ सवत्सां धेनुं प्रदक्षिणीकृत्य धर्मासनं यायात् 1173 ॥ अनधिकृतोऽनभिमतश्च न राजसभां प्रविशेत् । 174 | आराध्यमुत्थायाभिवादयेत् ||75 ॥
अन्वयार्थ :- (आत्मरक्षायाम्) स्व की रक्षा में (कदाचित् ) कभी (अपि) भी (न) नहीं (प्रमाद्येत्) प्रमाद करना 172 || राजा (सवत्साम्) बच्चेयुत ( धेनुम् ) गाय की ( प्रदक्षिणी ) परिक्रमा ( कृत्य) करके ( धर्मासनम् ) राजसिंहासन को (यायात् ) स्वीकार करे 1173 | (अनधिकृतः ) अस्वीकार किया (अनभिमतः च) और बिना अभिप्राय वाला (राजसभाम्) राजसभा में (न) नहीं (प्रविशेत्) प्रविष्ट हो ।।74 | (आराध्यम्) आराधनीय, पूज्य का (उत्थाय ) उठकर (अभिवादयेत्) सम्मान करे | 175 ||
विशेषार्थ :- शारीरिक, मानसिक व आध्यामिक कष्टों को पृथक् कर मनुष्य को अपनी रक्षा करने में विलम्ब व प्रमाद नहीं करना चाहिए ||72 ||
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