Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम्
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'शत्रु के दुर्ग को नष्ट करने का उपाय, राज कर्त्तव्य व ऐतिहासिक दृष्टान्त :
उपायतोऽधिगमनमुपजापश्चिरानुबन्धोऽवस्कन्द तीक्ष्ण पुरुषोपयोगश्चेति पर दुर्गलभ्भोपायाः ।।6।। नामुद्रहस्तोऽशोधितो वा दुर्गमध्ये कश्चित् प्रविशेनिर्गच्छेद्वा ।।7॥ श्रूयते किल हूणाधिपतिः पथ्यपुट वाहिमिः सुभटैः चित्रकूट जग्राह IS ॥ खेट खङ्गधरैः सेवार्थ शत्रुणा भद्राख्यं कांचीपतिमिति ।।१॥
अन्वयार्थ :- (उपायतः) युक्तिपूर्वक (अधिगमनम्) सामादि (उपजापः) विविध उपाय (चिरानुबन्धः) अधिक समय तक घेरा डालना (अवश्कन्दः) शत्रुदल के कर्मचारियों को वश करना (तीक्ष्ण-पुरुषोपयोगः च) और कठोर गुप्तचर नियुक्ति (इति) ये (परदुर्गलम्भः) शत्रु दुर्ग लेने का (उपायाः) उपाय [सन्ति] हैं 15 ।। (अमुद्रहस्तः) राज मुद्रारहित (वा) अथवा (अशोधितः) अपरिचित (दुर्ग-मध्ये) किले में (कश्चित्) कोई पुरुष (न) न (प्रविशेत्) प्रवेश करे (वा) अथवा-तथा (निर्गच्छेत्) जाय भी नहीं 117॥ (श्रूयते) सुना जाता है (किल) कि (हूणाधिपतिः) हूण राजा (पष्यपुटवाहिमि:) व्यापारार्थ आये (सुभटैः) वीर वेषी सुभटों द्वारा (चित्रकूटम्) चित्रकूट को (जग्राह) जीतलिया 18 ॥ (खेट खड्गधरैः) शिकार में दक्ष शत्रु (सेवार्थम्) सेवा के बहाने से (शत्रुणा) शत्रु द्वारा प्रेषिकों द्वारा (भद्राख्यम्) भद्रनामक राजा को मार दिया (काञ्चीपतिम्) काजी के पति को (इति) अपने स्वामी को पति बनाया ।
विशेषार्थ:- अपने राज्य विस्तार के इच्छुक, शत्रुविजय के अभिलाषी नृपति का कर्तव्य है कि वह अपने कार्य सिद्धवर्थ निम्न उपाय करे :
1. अधिगमन - समादि उपायपूर्वक शत्रु दुर्ग में शस्त्रादि से सन्नद्ध सेना प्रविष्ट करावे । 2. उपजाप - अर्थात् विविध उपायों-साम,दाम,भेद नीतियों का सामयिक प्रयोग कर शत्रु के अमात्यादि
में भेद उत्पन्न करावे । 3. चिरानुबन्ध - शत्रु के चारों ओर सशस्त्र घेरा डालना । 4. अवस्कन्द - शत्रु दल के अधिकारियों को प्रलोभनादि देकर बच्चों समान वश करना एवं 5. तीक्ष्ण पुरुष प्रयोग - घातक कुम्भकर्ता अर्थात धनुर्विद्या में पारंगत एक ही व्यक्ति अपने ही किले में
बैठकर वह सैकड़ों भदों को मृत्यु के पार पहुंचा सकता है । अथवा धातक गुप्तचरों को शत्रु सेना - कटक में भेजकर शत्रुबल, शक्ति आदि का सञ्चय कितना है ? माल खजाना क्या है? आदि ज्ञात करना। ।।2॥ शुक्र विद्वान ने कहा है:
न युद्धेन प्रशक्यं स्यात् परदुर्ग कथंचन ।
मुक्त्वा भेदाधुपायांश्च तस्मात्तान् विनयोजयेत् ॥ अर्थात् - विजिगीषु राजा शत्रु समूहो को केवल युद्ध द्वारा ही नष्ट नहीं कर सकता, अपितु उसके अधिकारियों वर्गों में साम छोड़ कर भेदादि उपाय करना चाहिए ।
दुर्ग के अन्दर बैठा एक धनुर्धारी । यह बाण चलाने में सिद्ध हस्त हो तो अकेला ही एक साथ तीरंदाजी से अनेकों को अपने वाणों का लक्ष्य बना देता है । अत: उठते ही शत्रुओं को तीरों से नष्ट-भ्रष्ट कर डालता है। अभिप्राय यह है कि एक ही निर्भय होकर शक्तिशाली भी शत्रु को परास्त करने में सक्षम होता है । अतः दुर्ग में ( रहकर भी युद्ध किया जा सकता है ।।। ॥
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