Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम्
के (विरक्तकारणानि) विरक्ति के कारण [सन्ति ] हैं ।।24 ॥ (स्त्रीणाम्) स्त्रियों के (सहजः) स्वाभाविक (गुणः) गुण (व) अथवा (दोषः) दोष (न) नहीं (अस्ति) है (किन्तु) परन्तु (नद्यः) नदी के (समुद्रम्) समुद्र (इव) समान (यादृशम्) जैसा (पतिम्) पति (आप्नुवन्ति) प्राप्त करती हैं (ताद्देश्य:) उसी प्रकार की (स्त्रियः) स्त्रियाँ (भवन्ति) होती हैं ।।25। (स्त्रीणाम्) स्त्रियों का (दौत्यम्) दूतीपना (स्त्रियः) स्त्रियाँ ही (एव) ही (कुर्युः) करें (तैरश्च:) तिर्यञ्च (अपि) भी (पुंयोगः) पुरुष हो तो (स्त्रियम्) स्त्रियों को (दूषयति) दूषित कर देता है (पुन:) फिर (मानुष्यः) मनुष्य की (किम्) क्या बात? ।।26 ॥ (वंश विशुद्धचर्थम्) वंश शुद्धि के लिए (अनर्थपरिहारार्थम) अनर्थ को दूर करने के लिए (स्त्रियः) नारियाँ (रक्ष्यन्ते) रक्षित हैं (भोगार्थम्) भोग के लिए (न) नहीं ।।27।।
विशेषार्थ :- स्त्रियाँ पति से विरक्त क्यों हो जाती हैं ? इसके निम्न कारण हैं : __ 1. सपत्नीविधान करना अर्थात् पतिद्वारा द्वितीय कन्या का वरण करना । 2. पति के मन में ईर्ष्या, द्वेषादि मलिन भाव जाग्रत होना । 3. पत्नी का बांझ होना-सन्तान विहीन होना । 4. बहुत काल तक पति का विदेशादि में रहना अर्थात् चिर समय तक पति वियोग होना । 5. पति द्वारा पत्नी का तिरस्कार किया जाना । अभिप्राय यह है कि जिन्हें अपनी पत्नी को अपने अनुकूल और पतिव्रता बनाना है वे उपर्युक्त पाँच बातों का परिहार करें ।।24 1 जैमिनि विद्वान ने भी स्त्रियों की प्रतिकूलता के विषय में यही कहा है :
सपत्नी वा समानत्वमपमानमनपत्यता देशान्तरगतिः पत्युः स्त्रीणां रागं हरन्त्यमी ।।1।।
अर्थ उपर्युक्त प्रमाण हो है ॥24॥ महिलाओं में गुण व दोष स्वाभाविक-सहज नहीं होते । अपितु समुद्र में प्रविष्ट नदी की भाँति पति के गुण-दोषों के साथ मिलकर गुणी व दोषी हो जाती हैं ।। जिस प्रकार नदियाँ सुस्वादु मधुर जलभरी होते हुए भी सागर में मिलकर उसी के अनुसार क्षारजल रूप हो जाती हैं ।। इसी प्रकार स्त्रियाँ भी पति के गुणों से युक्त-मिलकर गुणी और दोषों के साथ दोषी हो जाती हैं ।।25 ॥ शुक्र विद्वान ने भी यही अभिप्राय व्यक्त किया है :
गुणो वा यदि वा दोषो न स्त्रीणां सहजो भवेत् ।
भर्तुः सदृशतां यांति समुद्रस्यापगा यथा ।।1॥ स्त्रियों की सेवा करने वाली, दूतकर्म-सन्देशवाहिका स्त्रियाँ ही होनी चाहिए । पुरुष वेदी तिर्यञ्च भी उनके सम्पर्क में आयेगा तो उन्हें दूषित कर देगा फिर मनुष्य जातीय पुरुष की तो बात ही क्या है ? मनुष्य संसर्ग को तो दूषण का कारण जानना ही चाहिए । गुरु विद्वान ने भी कहा है :
स्त्रीणां दौत्यं नरेन्द्रेण प्रेष्या नार्यों नरो न वा । तिर्यञ्चोऽपि च पुंयोगो दृष्टो दूषयति स्त्रियम् ॥
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