Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम्
देशगर्भे तु यद् दुर्ग सम् दुर्ग जायते ततः । देश प्रान्तगतं दुर्ग न सर्व रक्षितो जनैः ।।।।
अर्थात् दशन विहीन सर्प, मद विरहित गज, जिस प्रकार सहज वश कर लिए जाते हैं उसी प्रकार दुर्ग रहित नृप सरलता से परास्त कर दिया जाता है ।2 ॥ जो किला या दुर्ग देश के मध्य की सीमा पर निर्मित किया जाता है विद्वान उसकी प्रशंसा करते हैं अर्थात् वह देश की सुरक्षा में उपयुक्त माना जाता है । तथा जो देश की अन्तिम सीमा पर दुर्ग निर्मित किया जाता है वह सम्पूर्ण जनपदों की रक्षा में समर्थ नहीं होता IB॥ इस प्रकार "दुर्ग" का अभिप्राय समझना चाहिए
दुर्ग के दो भेद हैं - 1. स्वाभाविक और 2. आहार्य ।
1. स्वयं उत्पन्न हुए. युद्धोपयोगी व शत्रुओं द्वारा आक्रमण करने के अयोग्य गिरि कन्दरा, कोट, खाई आदि विकट या अगम्य स्थानों को स्वाभाविक दुर्ग कहते हैं । अर्थशास्त्रज्ञ चाणक्य ने इसके चार भेद कहे हैं - 1, औदकजलदुर्ग, 2. पार्वत्-पर्वत दुर्ग, 3. धान्वन और 4. वनदुर्ग-स्थलदुर्ग । तथा हि :
1. औदक - नगर के चारों ओर नदी या विशाल सरोवरों से वेष्टित व मध्य में टापू समान विकट स्थान ___ को "औदक" कहते हैं । 2. पार्वत - जो बड़े-बड़े पर्वतों से घिरा हो स्वयं जिसके चारों ओर गुफाएँ कन्दराएं निर्मित हो गई हों
वह "पार्वत" कहलाता है । 3. धान्वन - जल व घास-तृण शून्य भूमि या ऊपर जमीन में बने हुए विकट स्थान को "धान्वन" कहते
4. वनदुर्ग - चारों ओर घनी-कीचड़ से अथवा कांटेदार झाड़ियों से घिरे हुए स्थान को वनदुर्ग कहते हैं।
जलदुर्ग और पर्वत दुर्ग देशरक्षार्थ एवं धान्वन व वन-दुर्ग आटविकों की रक्षा के स्थान माने जाते हैं । आपत्तिकाल में शत्रुओं से रक्षित होने के लिए राजा भी इनमें जाकर छिप सकते हैं ।। देखें कौटिल्य अर्थशास्त्र प्र.21 सूत्र 2-3
(2) आहार्य दुर्ग :- कृत्रिम उपायों द्वारा बनाया गया दुर्ग "आहार्य" कहलाता है । अर्थशास्त्र के आधार पर बुद्धोपयोगी खाई, कोट आदि दुर्गम, विकट स्थानों का निर्माण आहार्य कहा जाता है । "आहार्य दुर्ग" कहलाता है ।2॥ दुर्ग विभूति व दुर्ग शून्य देश तथा राजा की हानि :
वैषम्यं पर्यासावकाशो यवसेन्धनोदक भूयस्त्वं स्वस्य परेषामभावो बहुधान्य रस संग्रहः प्रवेशापसारौ वीर पुरुषा इति दुर्ग सम्पत् अन्य द्वन्दिशालावत् ।।3। अदुर्गो देशः कस्य नाम न परिभवास्पदम् ॥4॥ अदुर्गस्य राज्ञः पयोधिमध्येपोतच्युतपक्षीवदापदि नास्त्याश्रयः ।।5।।
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