Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम्
परम्परा से चले आये भाई-बहिन आदि कुटुम्बी जन सहज मित्र हैं । क्योंकि वंश परम्परा से चले आ रहे । हैं । भागुरि विद्वान ने भी यही सिद्धान्त बताया है :
सम्बन्धः पूर्वजानां यस्तेन योऽत्र समाययौ । मित्रत्वं कथितं तच्च सहजं मित्रमेव हि ॥1॥
यही सहजमित्र का लक्षण है || जो व्यक्ति उदरपूर्ति और प्राणरक्षा के लिए अपने स्वामी की सेवा करता है और वेतन प्राप्त करता है - वेतन से ही स्नेह करता है वह 'कृत्रिम' मित्र है । क्योंकि वह स्वार्थ सिद्धिवश मित्रता करता है और जीविकोपयोगी वेतन न मिलने पर अपने स्वामी से मित्रता करना छोड़ देता है । | भारद्वाज विद्वान ने भी कहा है :
वृत्ति गृहणति यः स्नेहं नरस्य कुरुते नरः । तन्मित्रं कृत्रिमं प्राहुर्नीतिशास्त्रविदोजनाः ।।1।।
स्वार्थ सिद्धयर्थ जो प्रीति करता है वह कृत्रिम मित्र है ।।4।। मित्र के गुण-दोष, मित्रता-नाशक कार्य व निष्कपट मैत्री का दृष्टान्त :
व्यसनेषूपस्थानमर्थेष्वविकल्पः स्त्रीष परमं शौचं कोप प्रसादविषये याप्रतिपक्षत्वमिति मित्रगुणाः ।।। दानेन प्रणयः स्वार्थपरत्वं विपयुपेक्षणमहितसम्प्रयोगो विप्रलम्भनगर्भप्रश्रयश्चेति मित्रदोषाः ।। ।। स्त्री संगति विवादोऽभीक्षणयाचनमप्रदानमर्थसम्बन्धः परोक्षदोषग्रहणंपैशून्याकर्णनं च मैत्री भेदकारणानि 17 ॥न क्षीरात् पर महदस्ति यतसंगति मात्रेण करोति नीरमात्मसमम ॥18॥
अन्वयार्थ :- (व्यसनेषु) दुःख में (उपास्थानम्) उपस्थित होना (अर्थेषु) धन में (अविकल्प:) छलरहित, (स्त्रीषु) स्त्रियों में (परमम्) अत्यन्त (शौचम्) पवित्रभाव, (वा) तथा (कोपविषादविषये) क्रोध-खेद में (अपरितिपक्षत्वम्) ईर्ष्यारहित (इति) ये (मित्रगुणाः) मित्र के गुण हैं ।15 ॥ (दानेन) दान से (प्राणय:) प्रीति, (स्वार्थपरत्वम्) स्वार्थीपन (विपदि) संकट में (उपेक्षणम्) उपेक्षा करना, (अहितसम्प्रयोगो) अहित में प्रवृत्ति (विप्रलम्भन) वंचना (च) और (गर्भप्रश्रयः) गुणों की प्रशंसा न करना (इति) ये (मित्रदोषाः) मित्र के दोष हैं 16 ॥ (स्त्री संगतिः) मित्र की स्त्री से सम्पर्क (विवादः) विवाद (अभीक्ष्ण याचनम्) नित्य मांगना (अप्रदानम्) स्वयं दान नहीं देना (अर्थ सम्बन्धः) लैन-दैन (परोक्षदोषग्रहणम्) परोक्ष में दोष कथन (च) और (पैशून्यं) चुगली (अकर्णनम्) सुनना (मैत्री) मित्रता के (भेदकारणानि) भंग के कारण हैं ।। ।। (क्षीरात्) दूध से (परम्) बढकर (महत्) महान (न) नहीं (अस्ति) है (यत्) जो (संगतिमात्रेण) सम्पर्क मात्र से (नौरम्) जल को (आत्मसमम्) आत्म समान (करोति) करता है ।।
विशेषार्थ :- यथार्थ मित्र के निम्न प्रकार गुण हैं - 1. जो पुरुष बिना बुलाये मित्र के संकट काल में आकर उपस्थित होता है 12. जो अपने मित्र से स्वार्थ सिद्धि नहीं चाहता हो अर्थात् प्रत्युपकार की भावना नहीं करता हो, 3. जो अपने मित्र के धन के साथ छल कपट नहीं करता - उसके धन को हड़पने की चेष्टा न करता हो
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