Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम्
रैम्य विद्वान ने कहा है :
लञ्चादि विकलो राजा मध्यमोऽच्यथ मानवैः । श्लाघ्यते यस्तु लोकानां सम्यक् स्यात् परिपालकः ।।
वही अर्थ है । अर्थ :- प्रजान्तर जो व्यक्ति सदाचारी हैं, द्यूतादि सप्तव्यसनों से रहित हैं, वे यदि दुर्भाग्यवश व्यापारादि में हानि से निर्धन हो गये हों तो राजा उन्हें कर्ज देकर आश्वस्थ करे । अर्थात् उनके व्यापारादि में सहायता प्रदान करे । शुक्र ने भी कहा है :
प्रतिकं च शतं वृद्धया देयं राज्ञा कुटुम्बिने ।
सीदमानाय नोदेयं छूताद्यै निर्धनाय च ।।1॥ अर्थ :- राजा द्यूतादि व्यसनासक्तों को छोड़कर अन्य दुःखियों को-दरिद्रपीड़ितों को ब्याज पर रुपये देकर समृद्ध बनावे । धनार्जन व्यापारार्थ उन्हें कर्ज देकर सम्पन्न बनाने का प्रयत्न करे 147 ॥
समुद्रपर्यन्त समस्त प्रजा राजा का परिवार होता है । तथा अन्न प्रदान करके राजा व प्रजा का संरक्षण करने वाले क्षेत्रादि उसकी (राजा) पत्तियाँ हैं । अभिप्राय यह है कि धर्मात्मा राजा अपनी प्रजा को अपना कुटुम्ब समझकर क्षेत्रादि का परिरक्षण कर उसके पालन की व्यवस्था करे ।। क्योंकि "अन्न वै प्राणा:" अन्न प्राण है और अन्नोत्पति का हेतू कृषि है। अतः कृषि रक्षण का प्रयत्न करे ।4।। किस उपहार को ग्रहण न करे, हंसी मजाक की सीमा, वाद-विवाद का निषेध :
अर्थिनामुपायनमप्रतिकुर्वाणो न गृह्णीयात् 1150 । आगन्तुकैरसहनैश्च सह नर्म न कुर्यात् ।।51॥ पूज्यै सह नाधिकं वदेत् ।।52॥ भर्तुमशक्य प्रयोजनं च जनं नाशया परिक्लेशयेत् 1153 ॥
अन्वयार्थ :- (अप्रतिकुर्वाण:) प्रत्युपकार न कर सके तो (अर्थिनाम्) प्रयोजकों का (उपायनम्) उपहार (न गृहणीयात्) स्वीकार न करे ।।50 ॥ (आगन्तुकैः) अपरिचित (च) और (असहनैः) सहनशक्ति-हीन (सह) के साथ (नर्म) हंसी-मजाक (न) नहीं (कुर्यात्) करे 1514। (पूज्यैः) पूज्यपुरुषों के (सह) साथ (अधिकम्) अधिक (न) नहीं (वदेत्) बोले ।।52 ।। (भर्तुः) भरणपोषण के (अशक्य प्रयोजनम्) असमर्थ हेतू (च) और अप्रयोजनीय (जनम्) मनुष्य को (आशया) आशा से (न) नहीं (परिक्लेशयेत्) पीड़ित न करे ।।53 ।।
विशेषार्थ :- संसार में उपहार देने वाले प्रायः उससे अपने इष्ट साधन की अपेक्षा रखते हैं । यदि राजा उपहार लाने या भेजने वाले के प्रयोजन की सिद्धि नहीं कर सकता हो तो उसे उसका प्रजेण्ट भी स्वीकार नहीं करना चाहिए । उसे वापिस भेज देना चाहिए । क्योंकि प्रत्युपकार नहीं करने पर लोक चिन्दा होगी और हंसी का पात्र भी बनना पड़ेगा ।। अतः उसे अस्वीकार ही कर देना चाहिए |150 । नारद विद्वान ने कहा है :
उपायनं न गृह्णीयाद्यदि कार्य न साधयेत् । अर्थिनां पृथ्वीपालो नो चेद्याति स वाच्यताम् ।।1॥
अर्थ उपर्युक्त ही है ।
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