Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
नीति वाक्यामृतम्
कोई निवारण नहीं कर सकता है । सारांश यह है कि उपर्युक्त विपरीत क्रियाएं यदि होने लगे तो इनका कौन निवारण कर सकता है ? इसे कलिकाल का ही प्रभाव समझना चाहिए ।। राजा का कर्तव्य न्यायपूर्वक प्रजा का पुत्र वात्सल्य समान पालन करना चाहिए। यदि राजा इसके विपरीत क्रिया करता है तो यह कलिकाल का ही दोष समझना चाहिए। अतः राजा को प्रजा के प्रति अन्याय नहीं करना चाहिए 144।। न्याय के प्रजापालन का परिणाम, न्यायी राजा की प्रशंसा-राजकर्तव्य :
न्यायतः परपालके राजिप्रजानां कामदुधा भवन्ति सर्वादिशः 1145॥ कालेवर्षतिमघवान्, सर्वाश्चेतयः प्रशाम्यन्ति, राजानमनवर्तन्ते सर्वेऽपि लोकपाला:तेन मध्यमप्युत्तमं लोकपालं राजानमाहुः ।147॥ अव्यसनेन क्षीणधनान् मूलधनप्रदानेन सम्भावयेत् ॥18॥ राज्ञोहि समुद्रावधिर्मही कुटुम्ब, कलत्राणि च वंशवर्द्धन क्षेत्राणि 149॥
अन्वयार्थ :- (न्यायः) न्यायपूर्वक (परपालके) प्रजापालन करने वाले (राज्ञि) राजा के होने से (प्रजानाम्) प्रजा को (सर्वा) सम्पूर्ण (दिशः) दिशाएँ (कामदुधा) कामधेनु (भवन्ति) हो जाती हैं 1145 ॥ (काले) समय पर (मद्यवान्) मेघ (वर्षति) बरसते हैं, (सर्वाः) सभी (चेतयः) प्राणी-चित्त (प्रशाम्यन्ति) शान्त हो जाते हैं (राजानम्) राजा का (अनुवर्तन्ते) अनुकरण करते हैं (सर्वे) सर्व (अपि) भी (लोकपाला:) लोकरक्षक (तेन) उससे (मध्यम्) बीच का (अपि) भी (राजानम्) राजा को (उत्तमम्) सर्वोत्तम (लोकपालम्) प्रजारक्षक (आहुः) कहते हैं 147 ।। (अव्यसनेन) व्यसनरहित होने पर भी (क्षीणधनान) जो गरीब हो गये उन्हें (मूलधनप्रदानेन) मूल धन देकर (सम्मावयेत्) स्थितिकरण करे, अर्थात् उन्हें धन प्रदान कर सुखी करे 148 || (हि) निश्चय से (राज्ञः) राजा का (समुद्रावधिमही) सागरपर्यन्त भूमि (कुटुम्बम्) परिवार (कलत्राणि) स्त्रियां, (वंशवर्द्धन) वंशवृद्धि के (क्षेत्राणि) क्षेत्र हैं 149॥
विशेषार्थ :- जो राजा न्यायपूर्वक राज करता है, प्रजा की सुरक्षा में दत्तचित्त रहता है उसकी प्रजा को दशों दिशाएँ कामधेनु सदृश हो जाती हैं । क्योंकि ललितकला, कृषि, वाणिज्य आदि की प्रगति न्याययुक्त शासन के आश्रय से ही संभव होती है । नीतिकारों ने कहा है :
राज्ञाचिन्तापरे देशे स्वार्थसिद्धिः प्रजायते । क्षेमेण कर्षकाः सस्यं प्राप्नुयु निनो धनम् ।।1।।
अर्थ :- नृपति यदि प्रजापालन की चिन्तारत रहता है तो सर्व की स्वार्थ सिद्धि होती हैं । क्योंकि कृषिकादि सभी आनन्द से कर्तव्यनिष्ठ रहते हैं जिससे खेती बूब फलती है-धान्य सुख से उत्पन्न होता है धनिकों को धनोपलब्धि होती है । क्योंकि व्यापार-विस्तार होता है ।। इसलिए न्यायपूर्वक राजा को राज्य शासन करना चाहिए 145 ॥ समयसमय पर वर्षा होती है, सबों के चित्त शान्त उपद्रवरहित होते हैं, समस्त लोक रक्षक राजा का अनुसरण करते हैं। यही कारण है कि विद्वानजन राजा को मध्यम लोकपाल होते हुए भी ऊर्ध्वलोक पालक कहते हैं ।। अर्थात् स्वर्ग का रक्षक-लोकपाल मानते हैं 146-47 ॥ गरु विद्वान ने कहा है:
इन्द्रादि लोकपाला ये पार्थिवे परिपालके । पालयन्ति चतद्राष्ट्र वामेवामं च कुर्वते ।।1॥
उपर्युक्त हो अर्थ है ।46॥
365