Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीतिवाक्यामृतम्
देशजावन- पेक्ष्यानित्यश्चाधिकारः । 150 || आदायक निबन्धक प्रतिबन्धकनीवीग्राहक राजाध्यक्षाः करणानि 1151 | आय व्यय विशुद्धं द्रव्यं नीवी 1152 ॥ नीवी निबन्धक पुस्तक ग्रहण पूर्वक मायव्ययौ विशोधयेत् । 153 | आय व्ययविप्रतिपत्तौ कुशलकरणकार्य पुरुषेभ्यस्तद्विनिश्चयः ।। 54 ॥
अन्वयार्थ :- ( बहुमुख्यम्) एक मुखिया नहीं (च) और (अनित्यम्) स्थायी नहीं इस प्रकार (करणम् ) कर्मचारी ( स्थापयेत् ) नियुक्त करे | 148 || (स्त्रीषु) स्त्रियों का (च) और (अर्थेषु) धन के विषय में ( मनाक् ) अल्प (अपि) भी (अधिकारे) रक्षण में (जातिसम्बन्ध:) सम्बन्ध उत्पन्न (न) नहीं करे | 149 || (स्व) निज ( परदेशज) अन्य देशी (अनपेक्ष्य) विचार न कर (अनित्यः) कुल कालिक (च) और (अधिकार) अधिकार [प्रयच्छेत् ] प्रदान करे 1150 || ( आदायक: ) व्यापारी (निबन्धकः) खाता लेखक ( प्रतिबन्धकः ) मुहर लगाने वाला (नीवी) खजांची ( ग्राहक : ) लेने वाला ( राजाध्यक्षा : ) प्रधान (करणानि ) कुला: [ भवन्ति ] होते हैं । 151 ॥ ( आय व्यय विशुद्धम् ) आमद-व्यय-खर्च से शेष रहा द्रव्य (नीवी) नीवी" [अस्ति ] है 1152 1 (नीवी) जमा द्रव्य (निबन्धकः ) सम्बन्धी (पुस्तकम्) पुस्तक, वही ( ग्रहणपूर्वकम् ) लेकर (आय-व्ययौ) प्राप्ति व खर्च को (विशोधयेत् ) जांच करे 1153 ॥ ( आयव्ययविप्रतिपत्तौ ) आय और व्यय के सम्बन्ध में विवाद होने पर ( कुशलकरणा:) शुभचिन्तकों ( कार्यपुरुषेभ्यः) कार्यकर्ताओं से (तत्) उसका ( निश्चय:) निश्चय [कुर्यात् ] करे | 154 ॥
विशेषार्थ :- राजा एवं प्रजा को इस प्रकार का राजतंत्र स्थापित करना चाहिए जिसमें बहुत से शिष्ट, सदाचारी, न्यायी, बुद्धिमन्त अधिकारी संचालक हों तथा जिसमें अधिकारियों की नियुक्ति स्थायी न हो क्योंकि स्थायी होने पर स्वेच्छाचारी होकर अनर्थ भी कर सकता है। तथा राजकोष की क्षति भी कर सकता है। अतः मंत्री, कोषाध्यक्ष, सचिव, सेनापति आदि करण की नियुक्ति न तो केवल अकेले की करे और न ही स्थायी रूप में करे। क्योंकि "प्रभुता पाय काय मद नाहि । " प्रभुत्व प्राप्त होने से तुच्छ बुद्धियों को मद चढ़ता है। अतः समयानुसार बदलने वाले ही स्थिरप्रज्ञ हो कार्य कर्तव्य निभायगें ॥48 ॥
गुरु विद्वान के उद्धरण का भी यही भाव है :
अशाश्वतं प्रकर्त्तव्यं करणं क्षितिपालकैः । बहुशिष्टं च यस्मात्तदन्यथा वित्तभक्षकम् ॥1॥
उपर्युक्त ही अर्थ है ।
राजा अथवा अन्य सत्पुरुष का कर्तव्य है कि वह अपने धन व स्त्री का रक्षक अन्य को न बनावे | गुरु विद्वान ने इस विषय में लिखा है :
स्त्रीष्वर्थेषु च विज्ञेयो नित्योयं जातिसंभवः ॥ 11 ॥ उपर्युक्त ही अर्थ है । 49 || स्वदेश का हो या परदेस का राजा स्थायी रूप में अधिकारियों की नियुक्ति न करे । अपितु अस्थायी, कुछ काल के लिए मंत्री आदि बनावे | क्योंकि राजपदाधिकारियों की स्थायी नियुक्ति हानिकारक होती है । वे राजकीय धन को हड़पने की चेष्टा में लग सकते हैं, प्रजा को भी तानाशाही से सता सकते है। परदेस से आगत व्यक्ति भी राजा द्वारा सचिवादि पद पर नियुक्त किया जाता है तो अस्थायी रूप में ही करना चाहिए । जो जिस कार्य में दक्ष हो उसे उसी का अधिकारी नियुक्त
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