Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नीति वाक्यामृतम्
अन्वयार्थ :- (क्षुद्रपरिषत्कः) दुष्ट अमात्यादि सभा में रहने से (सर्पाश्रयः) घर में सर्प (इव) समान (कस्यापिकस्य-अपि) किसी को भी (नसेव्यः) सेवन नहीं करना चाहिए । (अकृतज्ञस्य) कृतघ्न के (व्यसनेषु) व्यसन सेवियों
) सहायक (न सहन्ते) नहीं रहते हैं ।।14।। (अविशेषज्ञः) साधारण व्यक्ति (विशिष्टैः) विशेष पुरुषों द्वारा (न) नहीं (आश्रियते) आश्रय योग्य हैं In5॥ (आत्मम्भरिः) लोभी-अंहकारी (कलत्रेण) स्त्री द्वारा (अपि) भी (परित्यज्यो) छोड़ दिया जाता है (अनुत्साह.) प्रमाद (सर्व) सम्पूर्ण (व्यसनानाम्) व्यसनों का (आगमन) आने का (द्वारम्) दरवाजा है |117॥
विशेषार्थ :- जिस भूपति की सभा में मूर्ख मंत्री आदि होते हैं, वे राजा सर्पयुक्त घर समान भयङ्कर राज्य में रहते हैं । इसलिए वे किसी के द्वारा सेवन करने योग्य नहीं हैं ।। गुरु विद्वान ने भी कहा है :
हंसाकारोऽपि चेद्राजा गृधाकारैः सभासदैः ।
असेव्यः स्यात् स लोकस्य ससर्प इव संश्रयः ॥॥ अर्थ :- यदि राजा हंस के समान शुद्ध चित्त है, सौम्याकृति है, किन्तु यदि वह गृद्धपक्षियों समान, मन्त्री, पुरोहितादि दुष्ट, और घातकों से घिरा हो तो सर्पयुक्त गृह समान प्रजा द्वारा सेवन करने योग्य नहीं है, उसे प्रजा द्वारा त्याज्य समझना चाहिए |13||
जो दूसरों से उपकृत होकर भी उनका उपकार नहीं मानता, कृतघ्न है तो वृद्धावस्था में उसकी सेवा करने वाले सेवक भी उसे छोड़ देते हैं । आपत्तिकाल में कोई भी उसकी सेवा सुश्रुषा नहीं करता । अतएव प्रत्येक व्यक्ति को कृतज्ञ होना चाहिए In4॥ जैमिनि ने भी कहा है :
अकृतज्ञस्य भूपस्य व्यसने समुपस्थिते ।
साहाय्यं न करोत्येव कश्चिदाप्तोऽपि मानवः ।।1।। कृतघ्न राजा पर विपत्ति आने पर अन्य तो क्या उसका परिवार मण्डल भी उसकी सहायता करने को तैयार नहीं होते 14 ||
अज्ञानी मूर्ख पुरुष शिष्ट-मनीषी, विद्वानों द्वारा सेवित नहीं होता ।।5।। शुक्र विद्वान ने भी कहा है
काचंमणिं मणिं काचं योवेत्ति पृथिवी पतिः ।।
सामान्योऽपि न त सेवेत् किं पुनर्विवुधोजनः ।।1।। अर्थ :- जो मूर्ख, अविवेकी पृथ्वीपति काँच को मणि और मणि को काँच समझता है उसे साधारण जन भी मान्यता नहीं देते फिर विशिष्ट पुरुषों की तो बात ही क्या ? क्या विद्वान उसकी सेवा करेंगे ? नहीं कर सकते ।15।।
केवल मात्र अपने ही उदरपूर्ति में मस्त रहने वाले, परिवार की ओर लक्ष्य नहीं देने वाले लोभी-कृपण पुरुष,
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